Saturday 19 December 2009

हौसिला कितना तड़फने का देख तेरे बिस्मिल में है ।।


आज देश की महान हुतात्मा राम प्रसाद बिस्मिल का शहीद दिवश है तो इस छोटी पोस्ट में पेश इसी महान आत्मा द्वारा लिखित अंतिम नोट

देखना है किस कदर दम खंजरे कातिल में है।

अब भी यह अरमान यह हसरत दिले बिस्मिल में है ।।

गैर के आगे न पूछो इस में है एक खास राज ।

फिर बता देंगे तुम्हें जो कुछ हमारे दिल में है ।।

खींच कर लाई है सबको कत्ल होने की उमीद ।

आशिकों का आज जमघट कूचये कातिल में है ।।

फिरते हो क्यों हाथ में चारों तरफ खंजर लिये ।

आज है यह क्या इरादा आज यह क्या दिल में है ।।

एक से करता नहीं क्यों दूसरा कुछ बातचीत ।

देखता हूं मैं जिसे वह चुप तेरी महफिल में है ।।

उन पर आफत आयेगी एक रोज मर ही जाये गे।

वह तो दुनिया में नहीं जो कूचये कातिल में है ।।

एक जानिब है मसीहा एक जानिब है कजा़ ।

किस कशामकश में पड़ी है जान किस मुश्किल में है ।।

जख्म खाकर भी उसे है जख्म खाने की हवश ।

हौसिला कितना तड़फने का देख तेरे बिस्मिल में है ।।





परमात्मा ने मेरी पुकार सुन ली और मेरी इच्छा पूरी होती दिखाई देती है । मैं तो अपना कार्य कर चुका । मैने मुसलमानों में से एक नवयुवक निकाल कर भारतवासियों को दिखला दिया, जो सब परीक्षाओं में पूर्णतया उत्तीर्ण हुआ । अब किसी को यह कहने का साहस न होना चाहिये कि मुसलमानों पर विश्वास न करना चाहिये । पहला तजर्बा था जो पूरी तौर से कामयाब हुआ ।

अब देशवासियों से यही प्रार्थना है कि यदि वे हम लोगों के फांसी पर चढ़ने से जरा भी दुखित हुए हों, तो उन्हें यही शिक्षा लेनी चाहिये कि हिन्दू-मुसलमान तथा सब राजनैतिक दल एक हो कर कांग्रेस को अपना प्रतिनिधि मानें । जो कांग्रेस तय करें, उसे सब पूरी तौर से मानें और उस पर अमल करें । ऐसा करने के बाद वह दिन बहुत दूर न होगा जब कि अंग्रेजी सरकार को भारतवासियों की मांग के सामने सिर झुकाना पड़े, और यदि ऐसा करेंगे तब तो स्वराज्य कुछ दूर नहीं । क्योंकि फिर तो भारतवासियों की मांग के सामने सिर झुकाना पड़े, और यदि ऐसा करेंगे तबतो स्वराज्य कुछ दूर नहीं । क्योंकि फिर तो भारतवासियों को काम करने का पूरा मौका मिल जावेगा ।

हिंदू-मुसलिम एकता ही हम लोगों की यादगार तथा अन्तिम इच्छा है, चाहे वह कितनी कठिनता से क्यों न हो । जो मैं कह राहा हूं वही श्री अशफ़ाक उल्ला खां बारसी का भी मत है, क्योंकि अपील के समय हम दोनों लखनउ जेल में फांसी की कोठरियों में आमने सामने कई दिन तक रहे थे । आपस में हर तरह की बातें हुई थी । गिरफतारी के बाद से हम लोगों की सजा पड़ने तक श्री अशफ़ाक उल्ला खां की बड़ी उत्कट इच्छा यही थी, कि वह एक बार मुझसे मिल लेते, जो परमात्मा ने पूरी कर दी ।

श्री अशफ़ाक उल्ला खां तो अंग्रेजी सरकार से दया प्रार्थना करने पर राजी ही न थे । उन का तो अटल विश्वास यही था कि खुदाबन्द करीम के अलावा किसी दूसरे से दया की प्रार्थना न करना चाहिय, परन्तु मेरे विशेष आग्रह से ही उन्होंने सरकार से दया प्रार्थना की थी । इसका दोषी मैं ही हूं, जो अपने प्रेम के पवित्र अधिकारों का उपयोग करके श्री अशफ़ाकउल्ला खां को उन के दृढ़ निश्चय से विचलित किया । मैंने एक पत्र द्वारा अपनी भूल स्वीकार करते हुए भ्रातृ द्वितीया के अवसर पर गोरखपुर जेल से श्री अशफ़ाक को पत्र लिख कर क्षमा प्रार्थना की थी । परमात्मा जाने कि वह पत्र उनके हाथों तक पहुंचा भी या नही, खैर !

परमात्मा की ऐसी ही इच्छा थी कि हम लोगों को फांसी दी जावे, भारतवासियों के जले हुये दिलों पर नमक पड़े, वे बिलबिला उठें और हमारी आत्मायें उन के कार्य को देख कर सुखी हों । जब हम नवीन शरीर धारण कर के देशसेवा में योग देने को उद्यत हों, उस समय तक भारतवर्श की राजनैतिक स्थिति पूर्णतया सुधरी हुई हो । जनसाधारण का अधिक भाग सुशिक्षित हो जावे । ग्रामीण लोग भी अपने कर्तव्य समझने लग जावें ।

प्रीवीकौंसिल में अपील भिजवा कर मैंने जो व्यर्थ का अपव्यय करवाया उसका भी एक विशेष अर्थ था । सब अपीलों का तात्पर्य यह था कि मृत्यु दण्ड उपयुक्त दण्ड नहीं । क्योंकि न जाने किस की गोली से आदमी मारा गया । अगर डकैती डालने की जिम्मेवारी के ख्याल से मृत्युदण्ड दिया गया तो चीफ कोर्ट के फैसले के अनुसार भी मैं ही डकैतियों का जिम्मेदार तथा नेता था, और प्रान्त का नेता भी मैं ही था अतएव मृत्यु दण्ड तो अकेला मुझे ही मिलना चाहिए था । अतः तीन को फांसी नहीं देना चाहिये था । इसके अतिरिक्त दूसरी सजायें सब स्वीकार होती । पर ऐसा क्यों होने लगा ?

मैं विलायती न्यायालय की भी परीक्षा कर के स्वदेशवासियों के लिए उदाहरण छोड़ना चाहता था, कि यदि कोई राजनैतिक अभियोग चले तो वे कभी भूल करके भी किसी अंग्रेजी अदालत का विश्वास न करें । तबियत आये तो जोरदार बयान दें । अन्यथा मेरी तो यही राय है कि अंग्रेजी अदालत के सामने न तो कभी कोई बयान दें और न कोई सफाई पेश करें । काकोरी षडयन्त्र के अभियोग से शिक्षा प्राप्त कर लें । इस अभियोग में सब प्रकार के उदाहरण मौजूद है ।

प्रीवीकौंसिल में अपील दाखिला कराने का एक विशेष अर्थ यह भी था कि मैं कुछ समय तक फांसी की तारीख हटवा कर यह परीक्षा करना चाहता था कि नवयुवकों में कितना दम है, और देशवासी कितनी सहायता दे सकते हैं । इस में मुझे बड़ी निराशा पूर्ण असफलता हुई । अन्त में मैने निश्चय किया था कि यदि हो सके तो जेल से निकल भागूँ । ऐसा हो जाने से सरकार को अन्य तीनों फांसी वालों की फांसी की सजा माफ कर देनी पड़ेगी, और यदि न करते तो मैं करा लेता ।

मैंने जेल से भागने के अनेकों प्रयत्न किए, किन्तु बाहर से कोई सहायता न मिल सकी यही तो हृदय पर आघात लगता है कि जिस देश में मैने इतना बड़ा क्रान्तिकारी आन्दोलन तथा षड़यन्त्रकारी दल खड़ा किया था, वहां से मुझे प्राणरक्षा के लिये एक रिवाल्वर तक न मिल सका । एक नवयुवक भी सहायता को न आ सका । अन्त में फांसी पा रहा हूं । फांसी पाने का मुझे कोई भी शोक नहीं क्योंकि मैं इस नतीजे पर पहुंचा हूं, कि परमात्मा को यही मंजूर था ।

मगर मैं नवयुवकों से भी नम्र निवेदन करता हूं कि जब तक भारतवासियों को अधिक संख्या सुशिक्षित न हो जाये, जब तक उन्हें कर्तव्य-अकर्तव्य का ज्ञान न जावे, तब तक वे भूल कर भी किसी प्रकार के क्रान्तिकारी षड़यन्त्रों में भाग न लें । यदि देशसेवा की इच्छा हो तो खुले आन्दोलनों द्वारा यथा्शक्ति कार्य करें अन्यथा उनका बलिदान उपयोगी न होगा । दूसरे प्रकार से इस से अधिक देशसेवा हो सकती है, जो अधिक उपयोगी सिद्ध हेागी ।

परिस्थिति अनुकूल न होने से ऐसे आन्दोलनों से अधिकतर परिश्रम व्यर्थ जाता है । जिनकी भलाई के लिये करो , वहीं बुरे-बुरे नाम धरते है, और अन्त में मन ही मन कुढ़-कुढ़ कर प्राण त्यागने पड़ते है ।
देशवासियों से यही अन्तिम विनय है कि जो कुछ करें, सब मिल कर करें, और सब देश की भलाई के लिये करें । इसी से सब का भला होगा, वत्स !

मरते बिस्मिल रोशन लहरी अशफ़ाक अत्याचार से ।
होंगे पैदा सैकड़ों इनके रूधिर की धार से ।।

रामप्रसाद बिस्मिल गोरखपुर डिस्टिक्ट जेल
१५ दिसम्बर १९२७

सभार

http://kakorikand.wordpress.com

लेखक:
रामप्रसाद ‘बिस्मिल‘
प्रकाशक:
भजनलाल बुकसेलर
सिन्ध
प्रथमवार] सन १९२७ [मूल्य २)

12 comments:

गिरिजेश राव, Girijesh Rao said...

नमन और श्रद्धांजलि।

DIVINEPREACHINGS said...

जख्म खाकर भी उसे है जख्म खाने की हवश ।

हौसिला कितना तड़फने का देख तेरे बिस्मिल में है ।।

अमर शहीद रामप्रसाद बिस्मिल के प्रति हम नतमस्तक हैं ।

रूह-ए-बिस्मिल said...



चल भाई, तू जहाँ से भी हूबहू मैटर मय फोटो उठा लाया, कम से कम मुझे याद तो किया !
परमात्मा तुझे दृढ़ सँकल्प बख़्शे !

Anonymous said...



शुक्रिया दोस्त, लगे हाथ अशफ़ाक़ भाई को भी याद कर लेते,
मैटर उसी पन्ने पर है, जहाँ से मुझे याद किया गया है !

aarya said...

भाई जी सादर वन्दे
सच्चा राष्ट्रीय दिवस यही क्रन्तिकारियों के बलिदान दिवस ही हैं जिन्हें पूरे देश को मानना चाहिए'
आपकी बात को आगे बढ़ाते हुए मै यही कहूँगा

चाहे ह्रदय को ताप दो चाहे मुझे अभिशाप दो
कुछ भी करो कर्तव्य पथ से किन्तु भागूँगा नहीं
वरदान मागूंगा नहीं-वरदान मागूंगा नहीं
रत्नेश त्रिपाठी

Amrendra Nath Tripathi said...

बहुत अच्छा लगा पढ़ कर ..
नवाम्हम् !

Smart Indian said...

शहीदों को नमन और श्रद्धांजलि! याद दिलाने का धन्यवाद!

Mithilesh dubey said...

बेहद उम्दा व लाजवाब पोस्ट रही प्रवीन भाई आपकी । न पता क्यों हम ऐसे वीर शहिदो को भूलते जा रहें हैं जिम्होने हमें आजद करने के लिए अपने प्राण न्योछावर कर दिये , शायद यह देश का दुर्भाग्य हैं । आपका बहुत आभार इन्हे फीर से जेहन में लाने के लिए , ऐसे व्यक्तित्व वाले लोग हमेशा प्ररणास्त्रोत रहेंगे हमारे लिए ।

डा. अमर कुमार said...


यह पोस्ट यहाँ तक लाने का धन्यवाद !

rashmi ravija said...

शत शत नमन और हमारी विनम्र श्रधांजलि,भारत माँ के असली सपूतों को
शुक्रिया ऐसी सार्थक पोस्ट लिखने के लिए

ρяєєтii said...

naman ese mahan bharat mata ke saput ko.. shukriya jo yeh post padhwai....

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

अमर शहीद रामप्रसाद बिस्मिल नमन!