Wednesday, 26 May 2010

मुस्करा के बोले फिर मिलने की है आरजू अच्छा लगा ,,,,

जब उन्होंने फिर मोहब्बत से की गुफ्तगू अच्छा लगा ,,,,
मुस्करा के बोले फिर मिलने की है आरजू अच्छा लगा ,,,,
हम तो तनहा बड़ी कशमकश-ओ -वहिशत में जी रहे थे,,,
उन्होंने किया प्यार का नया सिलशिला शुरू अच्छा लगा,,,
हम मदहोश होते रहे की ये शहर ऐ गुल की है मस्ती ,,,,
जब तूने कहा ये जुल्फ ऐ शबरंग का जादू अच्छा लगा ,,,,
हम तो अपना हाल -ऐ - दिल सुनाने को वेइन्तहा बेकरार थे ,,,
बड़ी साफगोई से तेरा ये नजरे चुराना यूँ अच्छा लगा,,
अब तो फ़स्ल-ऐ बहार भी बे नूर बदरंग सी लगती है,,,
फिर यादो में आगई तेरे अहसाश की खुशबू अच्छा लगा ,,
मायूश हूँ अबकी खिजा तक शायद जिन्दा न रह पाउँगा ,,,
जब से सुना उनको कब्र देखने की है जुस्तजू अच्छा लगा ,,,,
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Friday, 21 May 2010

कभी हाँ कभी न तेरा ये बहाना बुरा लगता है ,,,,(प्रवीण पथिक,)

तेरा ये बनावटी सा मुस्कराना बुरा लगता है,,,
कभी हाँ कभी न तेरा ये बहाना बुरा लगता है ,,,,
कितनी तंगी खुशहाली साथ काटी थी हमने,,,,,
ये जिन्दगी यूँ अधर में छोड़ जाना बुरा लगता है ,,,
उम्र आंकते हुए खिची थी लकीरे जो दीवारों पर,,,
आज उन लकीरों को मिटाना बुरा लगता है ,,,
भुर भुरा कर गिर गयी चौखट पुराने घर की ,,,
बनावट के नाम पर घर गिराना बुरा लगता है,,,
आशूं छलक पड़ते है देख माँ की तस्वीर को,,,
अभी बच्चा ही तो हूँ यूँ छोड़ जाना बुरा लगता है ,,,
वो कैसे भूत शैतान कह कर बुलाया करती थी ,,,
अब किसी का नाम लेकर बुलाना बुरा लगता है,,,,
हर पल सुलगता हूँ उन पुराने दिन के अहसासों में,,
एक पल को भी अहसासों को भुलाना बुरा लगता है ,,,

Thursday, 20 May 2010

यहाँ तो चुग्गा भी मिलता है मजहब बताने पर,,,,(प्रवीण पथिक)

तंग हाली जब मुस्कराती है मेरे मुस्कराने पर,,,
जाहिरात छुप नहीं पाते मेरे लाख छुपाने पर ,,,,,
इन नर्म फूलो से कांटो के वायस मै क्या पूछू ,,,
हर पाख जख्मी है बिखर जाता है सहलाने पर...
इस जहां में इल्म ओ हुनर का सम्मान ऐसा है,,,,
हाथ कलम किये जाते है ,ताज महल बनाने पर ,,,,
मैंने सभाल कर रखी है अपनी जां वतन के वास्ते ,,,,,
वो दहशत गर्द करार देते है वन्देमातरम न गाने पर,,,
शहर ए अमन का माहौल इतना मजहबी हो गया है,,
रोज तलाशता हूँ नयी -नयी गली आने जाने पर,,,,
बड़ी मायूशी में है आसमान के माशूम परिंदे ,,,,,
यहाँ तो चुग्गा भी मिलता है मजहब बताने पर,,,,
बेशक खुदा तू एक है , पर कायम न रह पायेगा ,,,
कुछ बाकी न रखेगे तुझे भी मजहबी बंनाने पर,,,,

Friday, 7 May 2010

आखिर क्यों मरती है केवल माएँ,,,(प्रवीण पथिक)

पिछले दिनों एक ऐसी घटना हुई जिसने हर व्यक्ति को छुआ ,, और समाज के बारे में सोचने वाले हर व्यक्ति ने अपनी अपनी तरह से अपने अपने विचार व्यक्त किये ,,,,अब क्या गलत है और क्या सही मै इस पचड़े में नहीं पडूंगा ,, लेकिन ये चीज सोचने को मजबूर जरूर करती है की येसी घटनाये इस कथित प्रगतिवादी समाज में होती क्यों ,, और जब होती है तो हमारा नजरिया एक पहलू क्यूँ होता है ,,,,आखिर क्यों नहीं उस दूसरे पक्ष का दर्द हम महसूश करते है क्या केवल इस लिए की वो पक्ष अपने आप को संस्कारों की जड़ो में बांधे रखने का दंभ भरता है ,,,, या फिर हम अपने संस्कारों और सभ्यता को तोड़ने के लिए इतने व्यघ्र है,,,,, इस घटना के बात उस माँ की अंतरात्मा क्या कहती होगी जिसने अपने कलेजे के टुकड़े को सहेज कर पाला ,,,,,,,

आखिर क्यों लांघी तुमने वो सीमाए ,,,
जो तय की थी समाज ने ........
आखिर क्यों भरा झूठा दंभ ,,,,,
प्रगतिवादिता का ,,,,,,
क्या मेरी करुणा इतनी सस्ती थी ,,,,
या संस्कारों की जड़े पोपली थी ,,,,
जो तुमने एक झटके में डहां दिया ,,,
कर्तव्यों से सींचा विश्वाश का विराट व्रक्ष ,,,
परिवर्तन स्रष्टि है , परिवर्तन विकाश है ,,,
पर कर्तव्यों को इति नहीं है ,,,संस्कारों की अवनति नहीं है ,,,
स्वच्छन्दता नहीं है ,,,निर्भयता है निर्दयता नहीं है ,,,,
फिर क्यूँ बनी इतनी निर्दयी ,,,,
आखिर क्यों नहीं दिया कोई मोल ,,,
तुमने मेरे वात्सल्य की प्रगाढ़ता को ,,,
क्षणिक वासनात्मकता के आगे ,,,,
आखिर क्यूँ लिया इतना अनापेक्षित निर्णय ,,,,
केवल क्षणिक भावुकता के लिए ,,,,,
क्यों नहीं विकशित हो सकी तुममे ,,,,,,
सामाजिक दायित्वों की समझ ,,,,,
आज माँ की विदीर्ण आत्मा कराह रही है ,,,,
कुछ प्रश्नों के साथ,,,,
तुमने आस्तित्व खोया ..और मै आस्तित्व हीन हो गयी ,,,,
तुम चिर निंद्रा और मै निर्जीवता में खो गयी ,,,,
एक प्रश्न के साथ ,,,
आखिर क्यों मरती है केवल मांये,,,,,
आखिर क्यों लांघी तुमने वो सीमाए