
अनमने मन से मै ,आत्मसंतुष्टि के द्वारा ,,
अविलम्बित जीवन के, अनुत्तरित से प्रश्नों को
अचंभित हो कर देख रहा था ,,
कर रहा था पूर्वालोकन ,,
आलौकिक और आकस्मिक ध्वनियों का ,,
जो प्रतिध्वनित हो रही थी,,
मेरी अंतरात्मा के भीतरी प्र्ष्ठो से ,,
कुछ स्याह ध्वनिया लग रही थी ,,
प्रश्न्योचित उत्तरों सी ,,,
मै विस्मित था ,,,
निरन्तर क्षीण होती इच्छाशक्ति ....
खो रही थी संबल ,,,
फिर भी मै मौन एवं सचेत था ,,,
ओढ़ रखी थी मैंने गम्भीरता ,
छदम सहनशीलता का आलम्बन लेकर,,,,
असहनीय हो रही उत्कंठा और जुगुप्सा ,
आत्मकेंद्रित हो कर,,,
दिखाना चाहती थी अपनी उपस्थिति का कारण ,,
पर मन मौन ही ,,
बुन रहा था निर्लिप्तता का अंत हीन आवरण ,,,
शायद कुछ अस्पस्ट ही सही ,,,
घट तो रहा था ,,
तभी तो मै मौन और सम्बल हीन होकर भी ,,,
मह्शूश कर रहा हूँ आलम्बन ,,,
हे दया निधे सारी तेरी ही कृपा है,,,,
अविलम्बित जीवन के, अनुत्तरित से प्रश्नों को
अचंभित हो कर देख रहा था ,,
कर रहा था पूर्वालोकन ,,
आलौकिक और आकस्मिक ध्वनियों का ,,
जो प्रतिध्वनित हो रही थी,,
मेरी अंतरात्मा के भीतरी प्र्ष्ठो से ,,
कुछ स्याह ध्वनिया लग रही थी ,,
प्रश्न्योचित उत्तरों सी ,,,
मै विस्मित था ,,,
निरन्तर क्षीण होती इच्छाशक्ति ....
खो रही थी संबल ,,,
फिर भी मै मौन एवं सचेत था ,,,
ओढ़ रखी थी मैंने गम्भीरता ,
छदम सहनशीलता का आलम्बन लेकर,,,,
असहनीय हो रही उत्कंठा और जुगुप्सा ,
आत्मकेंद्रित हो कर,,,
दिखाना चाहती थी अपनी उपस्थिति का कारण ,,
पर मन मौन ही ,,
बुन रहा था निर्लिप्तता का अंत हीन आवरण ,,,
शायद कुछ अस्पस्ट ही सही ,,,
घट तो रहा था ,,
तभी तो मै मौन और सम्बल हीन होकर भी ,,,
मह्शूश कर रहा हूँ आलम्बन ,,,
हे दया निधे सारी तेरी ही कृपा है,,,,
कविता में जगत नियन्ता के प्रति
ReplyDeleteकृतज्ञताज्ञापन बहुत ही सुन्दर रहा!
बहुत खूबसूरत रचना लगी , प्रवीण भाई आपको बहुत-बहुत बधाई । कविता की अंतिम लाईन में सारा सार स्पष्ट दिख रहा है ।
ReplyDeleteod rakhi thi maine gambheerta ......
ReplyDeletexheen hoti ichcha shakti
bahut gahri kavita
syaah dhwaniyan
शायद कुछ अस्पस्ट ही सही ,,,
ReplyDeleteघट तो रहा था ,,
पर इस अस्पष्ट घटित होने की प्रक्रिया को और तेज करने की आवश्यकता तो महसूस हो ही रही होगी!!
और फिर इसकी जरूरत भी तो है ---
सुन्दर अभिव्यक्ति
पर मन मौन ही ,,
ReplyDeleteबुन रहा था निर्लिप्तता का अंत हीन आवरण ,,,
शायद कुछ अस्पस्ट ही सही ,,,
घट तो रहा था ,,
तभी तो मै मौन और सम्बल हीन होकर भी ,,,
मह्शूश कर रहा हूँ आलम्बन ,,,
बहुत सुन्दर ....काफी दिनों बाद इतनी साहित्यिक कविता पढना बहुत अच्छा लगा...आमतौर पर इतने ख़ूबसूरत तरीके से इतने क्लिष्ट शब्दों को कविता में नहीं पिरो पाते लोग...भाव और शिल्प दोनों में बढ़ चढ़ कर है यह कविता...ऐसे ही लिखते रहें...शुभकामनाएं