इदम् राष्ट्राय || इदम् न मम् ||

"गत हमारी आयु हो निज रास्ट्र के उपकार में ", "भूल कर भी हाँथ न डाले हम कभी अपकार में " जननी जन्म भूमश्च स्वर्गादपि गरीयसी {प्रवीण}

Saturday, 4 February 2017

तुम्हारे बिना मै आस्तित्व हीन हूँ ,,,,,

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खुल जाती है मेरी आँखे,,,, दरवाजे की हल्की आहट से , और होता है अहसास तुम्हारे करीब होने का, और हो भी क्यूँ ना ? खिड़की पर करी...

मर तो मै उस दिन ही गयी थी ,

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मर तो मै उस दिन ही गयी थी , जब दायी ने अफ़सोस  के  साथ मेरे जन्म कि सूचना माँ  को दी ,, और बधायी भी नही माँगी  ,,,, माँ ने अश्रु भरी...
Friday, 3 February 2017

यादे बक्त को आंशू से डहा देती है,,,,

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मेरी और तुम्हारी तस्वीर . बेड के उसी सिराहने पर रखी है ,  जहाँ तब थी ,,,, ये ठन्डे और निशब्द उस जगह के बिलकुल नजदीक है ,, जहाँ ले...
Saturday, 20 April 2013

मैंने खाना सीख लिया है,,

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अब ना और सताओ  मुझको , मैंने  मुस्काना सीख लिया है ,, गर दुःख आये है  आने दो , मैंने इनको टरकाना सीख लिया है ,, मांगो ...

एक उपेक्षित आदमी है

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विचार शुन्य चमकती आँखे . और भाव शून्य चेहरा ,, मौन होते हुए भी कर रहा था ,, व्याखित उसकी मनोदशा को ,, चेहरे पर पड़ी आड़ी तिरछी  रे...
Monday, 3 January 2011

बे बजह ही सही मुस्करा लूँ तो चलूँ ,,,,,,,

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गुमनाम से दर्द को छुपा लूँ तो चलूँ,,,, बे बजह ही सही मुस्करा लूँ तो चलूँ ,,,,,,, इन तंग वादियों में घुल रही है जो ,,, बे खौफ सी धूप को ...
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Thursday, 15 July 2010

ना चाहते हुए वो फिर आ गया इस बार भी,,,

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ना चाहते हुए वो फिर आ गया इस बार भी ,,, देख ले वही गम वही हम , वही सब्बे बहार भी ...... मुफलसी ने हम को ऐसा पकड़ा...
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Wednesday, 26 May 2010

मुस्करा के बोले फिर मिलने की है आरजू अच्छा लगा ,,,,

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जब उन्होंने फिर मोहब्बत से की गुफ्तगू अच्छा लगा ,,,, मुस्करा के बोले फिर मिलने की है आरजू अच्छा लगा ,,,, हम तो तनहा बड़ी कशमकश-ओ -वहिशत मे...
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Friday, 21 May 2010

कभी हाँ कभी न तेरा ये बहाना बुरा लगता है ,,,,(प्रवीण पथिक,)

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तेरा ये बनावटी सा मुस्कराना बुरा लगता है,,, कभी हाँ कभी न तेरा ये बहाना बुरा लगता है ,,,, कितनी तंगी खुशहाली साथ काटी थी हमने,,,,, ये जिन्दग...
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Thursday, 20 May 2010

यहाँ तो चुग्गा भी मिलता है मजहब बताने पर,,,,(प्रवीण पथिक)

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तंग हाली जब मुस्कराती है मेरे मुस्कराने पर,,, जाहिरात छुप नहीं पाते मेरे लाख छुपाने पर ,,,,, इन नर्म फूलो से कांटो के वायस मै क्या पूछू ...
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मैं

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प्रवीण शुक्ल (प्रार्थी)
अशोक विहार, दिल्ली, India
मैं पंछी इस अनंत जीवन व्योम का , समरसता का पुजारी नेह का अनुरागी हूँ . चाहता नित नवीनता इस स्रस्ति में , करता हूँ दर्शन ब्रह्म का नित ब्रह्म में , आधियाँ अनगिनत है झेली इन बाजुओ से , स्थर है जो विचलित न हो वो आगी हूँ , समानता मेरी तू क्या कभी कर सकेगा व्योम की विशालता क्या कभी हर सकेगा मत हास कर सत्य का करले तू बोध , ब्रह्म जीव एक है इस का मैं भागी हूँ ,,, चला कोटि कोटि दूरिया इस जीवन की , झेली कोटि कोटि शूरिया इस अरी मन की , इस कुटिलता से विमुख ब्रह्म के सम्मुख , मय में डूबता उछरता नवीन वैरागी हूँ ,,, मत स्रस्ति का आधार मुझको मान ले तू सुक्ष्म बिंदु इस धरा का जान ले तू ,,,,,, कितने पुरुष महा पुरुष हो चुके निज आभा खो चुके जगाने आया वो त्यागी हूँ ,,, मान ले मन में जान ले ठान ले मन में विचलित न होना तुझको इस गगन में आरी कंटको को बांध निज नैया बना सोच ले वैभव मय जगत में बागी हू
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