Monday, 3 January 2011

बे बजह ही सही मुस्करा लूँ तो चलूँ ,,,,,,,

गुमनाम से दर्द को छुपा लूँ तो चलूँ,,,,
बे बजह ही सही मुस्करा लूँ तो चलूँ ,,,,,,,
इन तंग वादियों में घुल रही है जो ,,,
बे खौफ सी धूप को बचा लूँ तो चलूँ,,,
नस्तर पैविस्ती की मिशाले दिख रही है ,,
कुछ जख्म मै भी उठा लूँ तो चलूँ .,,,,,,,
जब चलना ही है तो चलता रहूँगा ,,,
एक ठहराव भी मिला लूँ तो चलूँ ,,,,,
सब सर्द सा सब जाम सा सब जमा हुआ ,,,
इस बर्फ को पिघला लूँ तो चलूँ ........
वहा फकत सफ्फाक सा सब सफ़ेद है ,,,
कुछ चुलबुले रंग मै उठा लूँ तो चलूँ ,,,,,

3 comments:

  1. गुमनाम से दर्द को छुपा लूँ तो चलूँ,,,,
    बे बजह ही सही मुस्करा लूँ तो चलूँ ,,,,,,,

    ये तो उस गाने पर बना दिया आपने
    आखिरी गीत मोहब्बत का सुना दूँ तो चलूँ………।

    लेकिन ऐसा लगा उससे भी कहीं बेहतर रंग भरे हैं इसमे आपने।

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  2. इन तंग वादियों में घुल रही है जो ,,,
    बे खौफ सी धूप को बचा लूँ तो चलूँ,,,

    धूप को बचाने की यह जद्दोजहद ... बहुत खूब

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  3. बहुत अच्छे भाव हैं इस रचना में ! शुभकामनायें !

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