Tuesday, 2 February 2010

मन


जाने क्यूँ कर्तव्यों की इति श्री ,,
करके मन हो रहा है आंदोलित ,,,
निर्भय होकर क्यों नहीं चाहता ,,,
मग्न रहना उसमे ,,,,
जो है उसकी नियति ,,,,
क्यों अकारण ही ,,,
चाहता है विलय होना उसमे ,,,३
जो है उसकी अवनति के कारक ,,,
अपूर्ण ही सही ,,,,
क्यों नहीं स्वीकार करता ,,,
अपनी भाग्य उपलब्धता को ,,,
क्यों बाँधता रहता है सीमाए उन पर ,,,
जो है उसके हास के कारक ,,,,
क्यों करता है आकलन,,,,,,,
अपनी उपलब्धि और अनुपलब्धि का ,,,
निजता में रख कर ,,,
जब की ये वैयक्तिक नहीं है ,,,
आखिर फिर क्यों रहती है ,,,
प्राप्य की उत्कंठा ,,,,,
जो प्राप्य उपलब्ध ही नहीं ,,,,
विलय ही है अंत ,,,
जिस अंत हीन यात्रा का ,,,
हे स्वामी क्या दोगे मुक्ति ,,,,
हे स्वामी क्या दोगे शक्ति ,,,,,,

5 comments:

  1. भाग्य की उपलब्धता को यथारूप स्वीकार कर लेने से शायद पुरूषार्थ का ह्रास होता है. उपलब्ध को स्वीकार करना तो हमारी मजबूरी है. अनुपलब्ध को प्राप्त करने की चेष्टा तो होनी ही चाहिये.
    (व्यक्तिगत विचार - सहमति आवश्यक नहीं)
    सुन्दर रचना

    ReplyDelete
  2. बेहतरीन रचना!! बधाई.

    ReplyDelete
  3. सुन्दर चिंतन,भावुक अभिव्यक्ति.....

    मनुष्य जड़ नहीं....आशा ,हताशा कोमल स्पंदित मन के स्वाभाविक गुण हैं...
    कर्मठता कर्तब्य ही नहीं ,पूजा भी है...ईश्वर ने जो क्षमताएं हमें दी हैं,उसका पूर्ण सदुपयोग ही उस दाता के दान के प्रति कृतज्ञता है...भाग्य,कर्मफल अपने हाथ नहीं,पर कर्म पूर्ण रूपेण अपने ही हाथ हुआ करता है...

    ReplyDelete