Saturday, 21 November 2009

अनावर्त मौन के झंझाव्रत में,,,


आज फिर देखना चाहता हूँ ,,
नीरवता कि तलहटी ,,
फिर चाहता हूँ फसना ,,
अनावर्त मौन के झंझाव्रत में,,,
लो बैठ गया हूँ वक्त कि कश्ती में,,,
घबडाहट और अन्मिलन का आनंद लिए ,,
अब उत्सुकता पूर्वक निहार रहा हूँ ,,,
अपने व्यक्तित्व की गहराई ,,,
जिसे समझने में ही रहा प्रयाश रत ,,
कुछ तीव्रता तो नहीं की मैंने ,,,
फिर उदिग्नता क्यूँ है ,,,
फिर क्यूँ नहीं मुखरित हो रही ,,
मेरी आंतरिक उर्जा ,,,
कुछ उकताहट सी हो रही है ,,,
व्यावहारिकता में व्य्पारिकता का मिलन ,,
असहनीय हो रहा है ,,,
धैर्य खो रहा है ,,,
बस चाहता हूँ उन्मुक्तता का निबारण,,
हटाना चाहता हूँ कलुषता का आबरण,,,
जिसे करसकू अमरत्व भरी म्रत्यु का बरण,,,
और बन सकू एक उदाहरण

3 comments:

निर्मला कपिला said...

बहुत सुन्दर प्रवीण बहुत दिन बाद तुम्हारी रचना पडी है । अद्भुत लिखते हो बधाई और आशीर्वाद्

rashmi ravija said...

बहुत ही ओजपूर्ण कविता है....मन की उलझनों को बड़ी अच्छी तरह बयाँ किया है....कुछ कर गुजरने का जज्बा लिए हुए है कविता...सुन्दर रचना

M VERMA said...

व्यावहारिकता में व्य्पारिकता का मिलन ,,
असहनीय हो रहा है ,,,
वाकई असहनीय हो रहा है. दोहरी मानसिकता और क्षद्म जिन्दगी जी रहे लोगों के बीच फंसी ऊर्जा का क्षय होते जाना ---