Saturday, 4 July 2009

ओस असीम को असीम से सेता हूँ ,,,, (कविता)


नव बैभव फैला डाली डाली,,
ओस की बुँदे ,,
तिनको की कोरे ,,
कुंठित भौरे ,,
दुखिता का राग ,,
मधु की चाहत ,,
मधु का पाना ,,
मधु से लेना वैराग ,,
करना निज मधु पे त्याग ,,
निज निजता का भान ,,
व्यर्थता ,,,
सुख वा मान ,,,
जीवन की थोड़ी दुखिता ,,
इस कलुषित से विमुखता ,,
उस दिव्य की ओर का एक पल ,,
उस नव्य की हर्दय में हलचल,,
देती है कैसी मीठी उमंग ,,
भरती है नीरस जीवन में रंग ,,
करती दुखिता का रंग भंग ,,
पुलकित होता अंग अंग ,,
जब निज का निज में मिलता रंग ,,
होती अंतस में धीमी जंग ,,
फिर असत्य के खोल में ,,
सत्य को मैं पा लेता हूँ ,,
हार सारी स्रष्टि जंगो को ,,
अंतस पे विजय मैं पा लेता हूँ ,,
तब उस असीम को ,,
असीम से सेता हूँ ,,,,

4 comments:

  1. lsumanअंतस भाव असीम के और दुखिता का राग।
    पाना जब मधु-भाव को मधु से क्यों वैराग?

    सादर
    श्यामल सुमन
    09955373288
    www.manoramsuman.blogspot.com
    shyamalsuman@gmail.com

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  2. श्यामल सुमन ने जो टिप्पणी की है शायद वह बहुत सी टिप्पणीयों पर भारी पड़े| मेरा सोचना भी कुछ-कुछ ऐसा ही है | आप के लिए TheNetPress.कॉम पर कुछ छोडा है ,समालोचन पा कर प्रसन्नता होगी , हो सकता है फिर से वार्ता का शुभ अवसर मिले |
    इसके अतिरिक्त " स्वाइन - फ्लू और समलैंगिकता [पुरूष] के बहाने से " पर भी हार्दिक आमंत्रण है |

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  3. मेरी टिप्पणी कहामं गयी मैने कल की थी
    बहुत सुन्दर कविता है बहुत बहुत आशीर्वाद

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