
एक चौराहा था , सुन्दर सा चौराहा ,,
चहकता हुआ चौराहा , महकता हुआ चौराहा ,,,
वहा उड़ती हुई पतंगे थी , घूमती हुई फिरंगे थी ....
सजती हुई मालाये थी,, लरजती हुई बालाये थी ,,,
चमकते चमड़े की दूकान थी,महकते केबडे की भी शान थी ,,
रफीक टेलर भी वही था , और हरी सेलर भी वही था ,,,
वहा पूरा हिन्दुस्तान था , हर घर और मकान था ,,
मेल मिलाप और भाई चारा था , कोई नहीं बेचारा था ,,
पर एक चीज वहा नहीं थी , जो न होना ही सही थी ,,
वहा नहीं था तो पुरम ,पुर और विहार नहीं था ...
वहा नहीं था तो दालान ,वालान और मारान नहीं था,,,
गली कासिम जान भी नहीं थी, और गली सीता राम भी नहीं थी ,,,,
वहा हिन्दू भी नहीं था , वहा मुसलमान भी नहीं था ,,
था तो केवल हिन्दुस्तान था , था तो केवल भारत महान था ,,
फिर एक आवाज आई मैं हिन्दू हूँ ,,
उसकी प्रतिध्वनी गूंजी मैं मुसलमान हूँ ,,,
और उस लय का गला घुट गया ,जो कह रही थी मैं हिन्दुस्तान हूँ ,,
सुनते ही सन्नाटा पसर गया ,,
उड़ते उड़ते हरी पतंग ने लाल पतंग मजहब पूछ लिया ,,
हरी ने रफीक के सीने में चाकू मार दिया ,,
सब्जियों में भी दंगा हो गया , अपना पन सरेआम नंगा हो गया ,,
बैगन ने आलू के कान में फुसफुसाया ,,मियां प्याज को पल्ले लगाओ ,,
कद्दू ने कुछ जायदा ही फुर्ती दिखाई,प्याज को लुढ़का दिया,,,
और वो पहिये के नीचे आ गया ,,
लहसुन ने मिर्ची को मसल दिया , क्यों की वो हिन्दू थी ,,
अब तो वहा पर कोहराम था ,क्यूँ की दंगा सरेआम था ,,
एक दूकान दूसरी दूकान से धर्म पूछ रही थी ,,
एक नुक्कड़ दूसरे नुक्कड़ से धर्म पूछ रहा था ,,
अब वहा पे वालान थे ,अब वहा पे मारान थे ,,
अब वहा पे पुरम था , अब वहा पे विहार भी था ,,
अगर कुछ नहीं था तो ,,
वहा पे हिन्दुस्तान नहीं था , मेरा भारत महान नहीं था ,,
अब वहा पर केवल हिन्दू था और मुसलमान था ,,
और वीरान ही वीरान था ,,
तभी किसी ने कहकहा लगाया और ताली बजाई ,,,
फिर उसने लम्बी साँस ली और ली अंगडाई,,
वो मुस्कराया क्यूँ की अब उसके मन का जहान था,,
फिर वह धीरे से बुदबुदाया मैं हिन्दू हूँ ,,
फिर वह धीरे से फुफुसाया , मैं मुसलमान हूँ ,,
और चल दिया अगले चौराहे पर,,
हिन्दुस्तान को हिन्दू और मुसलमान बनाने के लिए ,,
क्यों की यही तो उसका धर्म है और कर्म भी ,,
आखिर नेता जो है .....
चहकता हुआ चौराहा , महकता हुआ चौराहा ,,,
वहा उड़ती हुई पतंगे थी , घूमती हुई फिरंगे थी ....
सजती हुई मालाये थी,, लरजती हुई बालाये थी ,,,
चमकते चमड़े की दूकान थी,महकते केबडे की भी शान थी ,,
रफीक टेलर भी वही था , और हरी सेलर भी वही था ,,,
वहा पूरा हिन्दुस्तान था , हर घर और मकान था ,,
मेल मिलाप और भाई चारा था , कोई नहीं बेचारा था ,,
पर एक चीज वहा नहीं थी , जो न होना ही सही थी ,,
वहा नहीं था तो पुरम ,पुर और विहार नहीं था ...
वहा नहीं था तो दालान ,वालान और मारान नहीं था,,,
गली कासिम जान भी नहीं थी, और गली सीता राम भी नहीं थी ,,,,
वहा हिन्दू भी नहीं था , वहा मुसलमान भी नहीं था ,,
था तो केवल हिन्दुस्तान था , था तो केवल भारत महान था ,,
फिर एक आवाज आई मैं हिन्दू हूँ ,,
उसकी प्रतिध्वनी गूंजी मैं मुसलमान हूँ ,,,
और उस लय का गला घुट गया ,जो कह रही थी मैं हिन्दुस्तान हूँ ,,
सुनते ही सन्नाटा पसर गया ,,
उड़ते उड़ते हरी पतंग ने लाल पतंग मजहब पूछ लिया ,,
हरी ने रफीक के सीने में चाकू मार दिया ,,
सब्जियों में भी दंगा हो गया , अपना पन सरेआम नंगा हो गया ,,
बैगन ने आलू के कान में फुसफुसाया ,,मियां प्याज को पल्ले लगाओ ,,
कद्दू ने कुछ जायदा ही फुर्ती दिखाई,प्याज को लुढ़का दिया,,,
और वो पहिये के नीचे आ गया ,,
लहसुन ने मिर्ची को मसल दिया , क्यों की वो हिन्दू थी ,,
अब तो वहा पर कोहराम था ,क्यूँ की दंगा सरेआम था ,,
एक दूकान दूसरी दूकान से धर्म पूछ रही थी ,,
एक नुक्कड़ दूसरे नुक्कड़ से धर्म पूछ रहा था ,,
अब वहा पे वालान थे ,अब वहा पे मारान थे ,,
अब वहा पे पुरम था , अब वहा पे विहार भी था ,,
अगर कुछ नहीं था तो ,,
वहा पे हिन्दुस्तान नहीं था , मेरा भारत महान नहीं था ,,
अब वहा पर केवल हिन्दू था और मुसलमान था ,,
और वीरान ही वीरान था ,,
तभी किसी ने कहकहा लगाया और ताली बजाई ,,,
फिर उसने लम्बी साँस ली और ली अंगडाई,,
वो मुस्कराया क्यूँ की अब उसके मन का जहान था,,
फिर वह धीरे से बुदबुदाया मैं हिन्दू हूँ ,,
फिर वह धीरे से फुफुसाया , मैं मुसलमान हूँ ,,
और चल दिया अगले चौराहे पर,,
हिन्दुस्तान को हिन्दू और मुसलमान बनाने के लिए ,,
क्यों की यही तो उसका धर्म है और कर्म भी ,,
आखिर नेता जो है .....
पोल नेताओं की
ReplyDeleteखोल नेताओं का
गोल पब्लिक का
रोल हम सबका।
आज के धन्धेबाज राजनीतिज्ञयों की सही पहचान कराती एक भावपूणॆ सुन्दर रचना केलिये बधाई .
ReplyDeleteबहुत खूबसूरत लिखा है.
ReplyDeleteBahut sundar abhivyakti...umda kavita !!
ReplyDeleteस्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनायें. "शब्द सृजन की ओर" पर इस बार-"समग्र रूप में देखें स्वाधीनता को"
bahut hi badhiya.......badhaaee
ReplyDeleteबहुत उम्दा अभिवक्ति ...प्रवीण जी...रचना ने आज के कई सचों को सामने रख दिया...बहुत खूब यूँ लिखते रहे ..बेबाक और स्पष्ट ...
ReplyDeleteयही बस यही कारण है जो हमे विकास के मार्ग से हटाकर पतन की ओर ले जा रहा है..
ReplyDeleteहम अपने ही लोगों से जलते है...उनमे और अपने मे एक अंतर बना कर चलते है जबकि हम सब हिन्दुस्तानी है और एक ही ईश्वर की संतान है..
कुछ है ऐसे लोग जो हिंदू और मुस्लिम की बातें करते रहते हैं..सब सियासत है..
ज़्यादा बातें अच्छी नही..प्रवीण जी बस इतने से अपनी लेखनी बंद करना चाहता हू की आपकी इस कविता भारत के हर नागरिक तक पहुँचे..
बढ़िया संदेश...बहुत बहुत धन्यवाद..इस अच्छी कविता ..के लिए..
bhut hi achchhi lagi aap ki ye rachna
ReplyDeleterajneeti kmi sachchhi pahchan karati hui or bhut kuch kah jati aap ki ye rachna
aajज के नेताओं और धर्माँधता का नाच दिखाती सुन्दर कविता के लिये बधाई बहुत अच्छी रचनायें लिख रहे हो आशीर्वाद्
ReplyDeletesab kuch to aap ne hi kah diya ab main kya kahu
ReplyDeleteyahi ki jo bhi kaha hai bhut theek kaha hai