Thursday, 15 July 2010

ना चाहते हुए वो फिर आ गया इस बार भी,,,

ना चाहते हुए वो फिर गया इस बार भी,,,
देख ले वही गम वही हम ,वही सब्बे बहार भी ......
मुफलसी ने हम को ऐसा पकड़ा ये राहगीर,,
जहां से चले थे वही है ,वाकी है वही उधार भी,,,,
आज गली के बच्चे भी कहकहे लगा रहे थे ,,,
देखो तो भूंखा है अपाहिज है और बेकार भी ,,,,
आज भी सफ़ेद पोशो को देख कर सजदे करता हूँ,,,
सुना है सज्जाद को इनायत बखस्ती है सरकार भी ,,,
आज फिर एक भूंखे ने दम तोडा है इस चौक पर,,,
कोई कह रहा है खुल गयी यही कही बाजार भी ,,,,,
सब कहते है तेरे चेहरे पर मुद्दत से भूंखा लिखा है,,,
पूरजोर पोछता हूँ ,,और गाढ़ा होता है हर बार भी ,,,,
आज मेरी माँ ने खाने में रोटी का टुकड़ा भेजा है,,,
तू इत्मीनान से खाले मै फांके करुँगी इस बार भी ,,,,,

7 comments:

  1. प्रवीण जी
    आप तो निशब्द कर देते हैं………………हर बार की तरह ह्र्दय को झकझोरती रचना।

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  2. प्रवीण भाई,कई दिनों में मुलाकात हुई।
    आपकी लेखनी सामाजिक बुराइयों पर सीधी चोट करती है।
    प्रखर प्रहार से ही व्यवस्थाएं सुधरती हैं।
    इसी तरह लेखनी में धार बनाएं और हमे
    नई नई रचनाएं पढवाते रहें।

    आभार

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  3. संवेदना की बढ़िया अभिव्यक्ति , शुभकामनायें !

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  4. paveen aap ko pahli baar padha bahut hi achi rachna lagi bahut bada tamacha mara hai samaaj pe

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  5. कैसे-कैसे इस ब्लॉग तक पहुंचा, वो जुदा बात है। पर आपकी रचना ने मन रोका काफी देर तक। जेहन में कुछ अतिरिक्त जोड़ा भी। इसी योग के नाते आपसे दरख्वास्त है कि कृप्या आप अग्रिम रचनाओं को यथाशीघ्र डालें तो मन फिर आयेगा रूकेगा....देरतक...बेरोकटोक।

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  6. प्रवीण भाई काफी दिनों बाद आपकी कोई नई रचना आयी है... आपकी रचना कर्म की ओर प्रेरित करती है.. उद्वेलित करती है.. झ्झोरती है... सीधे समस्याओं से टकराने को कहती है.. सुन्दर कविता.. समाज को आइना दिखाती हुई..

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