Saturday, 4 February 2017

तुम्हारे बिना मै आस्तित्व हीन हूँ ,,,,,



खुल जाती है मेरी आँखे,,,,
दरवाजे की हल्की आहट से ,
और होता है अहसास तुम्हारे करीब होने का,
और हो भी क्यूँ ना ?
खिड़की पर करीने से पड़े पर्दे,
तुम्हारी उंगलियों की थिरकन अभी तक संभाले है,,
विषयवार रैक ने सलीके से रखी किताबे,
तुमसे बाते करने का जरिया ही तो है ,,
साफ़ महसूस करता हूँ तुम्हारे बालो की खुशबू,
जो अभी तक तकियेके लिहाफो में समाई हुयी है,,
शायद तुम्हारे लिए इसका कोई मतलब न हो,
पर सहेज कर रखी मही मैंने वो शर्ट,,
जिसपर बटन टांकते हुए टपकी थी .
तुम्हारे पसीने की कुछ एक बुँदे ,,,
भड़भड़ा कर उठ पड़ता हूँ मै सोते सोते,
हवा के साथ मेरे नथुनों में पैविस्त होती ,
तुम्हारी खुशबू ,
मुझे सोने नहीं देती जो समाई हुई है घर की ,
हर चीज में,,
तुम पागल ही कहोगी,
अब मै तुम्हारी तस्वीरों से बाते करता हूँ .
मुस्कराता हूँ ,चूमता हूँ .
और आंशुओ से नहलाता भी ,
और खो जाता हूँ तुम्हारे साथ की स्म्रतियो में.
यैसा होता है दिन में कई कई बार ,,
अब निर्थक है प्रयाश अपने आस्तित्व की,
तलाश का,
तुम्हारे बिना मै आस्तित्व हीन हूँ ,,,,,
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मर तो मै उस दिन ही गयी थी ,

मर तो मै उस दिन ही गयी थी ,
जब दायी ने अफ़सोस  के  साथ मेरे जन्म कि सूचना माँ  को दी ,,
और बधायी भी नही माँगी  ,,,,
माँ ने अश्रु भरी आँखों से दीवाल की तरफ देखा ,,

और सिसकी ली ,,
दादी ने मुँह सिकोड़ा  ,,,
और पिता हतासा  भरे कदमो से घर से  बाहर  निकल गए  ,,
मर तो मै उस दिन ही गयी थी ,
जिस दिन घर से बाहर पहला कदम  मैने रखा  और ,,
तुम्हारी तीखी  चुभती नजरो ने ,,
मेरे जिस्म को फाड़  कर कुछ  टटोला  ,,,
मैने खुद को नंगा और तार तार मह्सूस किया ..
मेरी मौत का पहला प्रयास  तुम्हारा ही था ...
जब गली से निकलते हुये तुमने भद्दी फ़ब्तिया कसी  ..
और बजार मे कन्धे से कन्धा रगड़ते  निकले ,,,
मर तो मै उस दिन ही गयी थी ,
जब माँ  ने खुल कर हँसने  से रोका ,,,
जब दादी ने खुल कर चलने से रोका ,,,
पिता ने बड़े  भाई  कि उँगली  थमा दी ,,
और समाज ने औरत कह कर पाबंदियो  की तख्ती लगा दी ,,,
मर तो मै उस दिन ही गयी थी ,
जब तुमने पीडिता कह कर  पहले .
मेरे नाम को मारा ,,
संवेदनाओं ,भावनाओं  आशाओ , अपेक्षाओं  के
ज्वार ने मह्सूस कराया और भी बेचारा ,,,,,
आज तो छोड़ा  है बस निर्जीव शरीर  को ,,,, वर्ना
मर तो मै उस दिन ही गयी थी ,

Friday, 3 February 2017

यादे बक्त को आंशू से डहा देती है,,,,

मेरी और तुम्हारी तस्वीर .
बेड के उसी सिराहने पर रखी है , 
जहाँ तब थी ,,,,
ये ठन्डे और निशब्द उस जगह के बिलकुल नजदीक है ,,
जहाँ लेटते हुए तुम अपना सर रखती थी ,,
हमारा  चेहरा बीते हुए कल की मुस्कराहट में 
नहाया हुआ है ... 
जो आज अंशुओ की उस  ब्रस्टि  से ढका जाना 
बाकी है जिसने 
हजारो मील की दूरी तय की है ,,,
तुम्हे याद है गर्म जुलाई के वो तपते हुए दिन ,,,
और हाथो में हाथ डाले चलना .
हम सोच भी नहीं  सकते थे हम इतना दूर होंगे ..
और एक महीना दूर करेगा
उस प्यार को जो सालो हमने जिया ..
इस पल को अभी जियो कल हो न हो ,,
तुम सच ही कहती थी 
अब और असहनीय लगती है
ये इतनी लम्बी दूरी ...
जब सूने और अकेले दिन गुजरना चाहते  है ,,
और गुजरते है 
जव सूने और अकेले पल गुजरना चाहते है
और गुजरते है ..
और मै उनमे तुम्हे नहीं रख सकता ,,
क्यों  की यादे बक्त को आंशू से डहा देती है,,,, 

Saturday, 20 April 2013

मैंने खाना सीख लिया है,,


अब ना और सताओ  मुझको ,
मैंने  मुस्काना सीख लिया है ,,
गर दुःख आये है  आने दो ,
मैंने इनको टरकाना सीख लिया है ,,
मांगो दिल हो जितना मांगो ,
अब मैंने बहाना सीख लिया है,,
मत चौराहों का खौफ दिखाओ ,
मैंने आना जाना सीख लिया है,,
वो मौतों के सौदागर है तो क्या,
मैंने  मर जाना सीख लिया है,,
तुम भी आओ झपटो न संकोच करों,
मैंने हर रोज  लुटाना सीख लिया है,,
जरा खुल कर घावो पर घाव लगाओ ,
मैंने  घाव सुखाना सीख लिया है ,,
न महंगाई कम है न जिम्मेदारी ,
बस बोझ उठाना सीख लिया है ,,
ना आंशू कम है न गम ख़त्म हुये ,
बस दिल बहलाना सीख लिया है ,,
माँ अब तुम चाहो तो मर जाओ ,
अब मैंने खाना सीख लिया है ,,

एक उपेक्षित आदमी है

विचार शुन्य चमकती आँखे .
और भाव शून्य चेहरा ,,
मौन होते हुए भी कर रहा था ,,
व्याखित उसकी मनोदशा को ,,
चेहरे पर पड़ी आड़ी तिरछी  रेखाये.
प्रदर्शित कर रही थी सरल से गम्भीरत्व को .
प्रकट और अप्रकट शब्दों के मेघ ,
उजागर कर रहे थे जीवन की  वीभत्सतता को
और जीवन से उसके प्रतारण को ,,
सब संवेदनाये शून्य सी हो जाती थी ,
सब भाव लुप्त से हो जाते थे ..
जव  वो करता था प्रयास ,,
जीवन पे चलने और उसके ,
नियमो के प्रतिपालन का ,,
क्योकि उसका हर प्रयाश ,,
उत्पन्न करता है और भी संदेह को ..
क्योकि उसकी क्षमता उसकी कार्यकुशलता ..
उसके सपनो की उपयोगता ,,
निर्थक ही है उसकी सामाजिक स्थिति के सामने ..
क्योकि वो
एक उपेक्षित आदमी है 

Monday, 3 January 2011

बे बजह ही सही मुस्करा लूँ तो चलूँ ,,,,,,,

गुमनाम से दर्द को छुपा लूँ तो चलूँ,,,,
बे बजह ही सही मुस्करा लूँ तो चलूँ ,,,,,,,
इन तंग वादियों में घुल रही है जो ,,,
बे खौफ सी धूप को बचा लूँ तो चलूँ,,,
नस्तर पैविस्ती की मिशाले दिख रही है ,,
कुछ जख्म मै भी उठा लूँ तो चलूँ .,,,,,,,
जब चलना ही है तो चलता रहूँगा ,,,
एक ठहराव भी मिला लूँ तो चलूँ ,,,,,
सब सर्द सा सब जाम सा सब जमा हुआ ,,,
इस बर्फ को पिघला लूँ तो चलूँ ........
वहा फकत सफ्फाक सा सब सफ़ेद है ,,,
कुछ चुलबुले रंग मै उठा लूँ तो चलूँ ,,,,,

Thursday, 15 July 2010

ना चाहते हुए वो फिर आ गया इस बार भी,,,

ना चाहते हुए वो फिर गया इस बार भी,,,
देख ले वही गम वही हम ,वही सब्बे बहार भी ......
मुफलसी ने हम को ऐसा पकड़ा ये राहगीर,,
जहां से चले थे वही है ,वाकी है वही उधार भी,,,,
आज गली के बच्चे भी कहकहे लगा रहे थे ,,,
देखो तो भूंखा है अपाहिज है और बेकार भी ,,,,
आज भी सफ़ेद पोशो को देख कर सजदे करता हूँ,,,
सुना है सज्जाद को इनायत बखस्ती है सरकार भी ,,,
आज फिर एक भूंखे ने दम तोडा है इस चौक पर,,,
कोई कह रहा है खुल गयी यही कही बाजार भी ,,,,,
सब कहते है तेरे चेहरे पर मुद्दत से भूंखा लिखा है,,,
पूरजोर पोछता हूँ ,,और गाढ़ा होता है हर बार भी ,,,,
आज मेरी माँ ने खाने में रोटी का टुकड़ा भेजा है,,,
तू इत्मीनान से खाले मै फांके करुँगी इस बार भी ,,,,,

Wednesday, 26 May 2010

मुस्करा के बोले फिर मिलने की है आरजू अच्छा लगा ,,,,

जब उन्होंने फिर मोहब्बत से की गुफ्तगू अच्छा लगा ,,,,
मुस्करा के बोले फिर मिलने की है आरजू अच्छा लगा ,,,,
हम तो तनहा बड़ी कशमकश-ओ -वहिशत में जी रहे थे,,,
उन्होंने किया प्यार का नया सिलशिला शुरू अच्छा लगा,,,
हम मदहोश होते रहे की ये शहर ऐ गुल की है मस्ती ,,,,
जब तूने कहा ये जुल्फ ऐ शबरंग का जादू अच्छा लगा ,,,,
हम तो अपना हाल -ऐ - दिल सुनाने को वेइन्तहा बेकरार थे ,,,
बड़ी साफगोई से तेरा ये नजरे चुराना यूँ अच्छा लगा,,
अब तो फ़स्ल-ऐ बहार भी बे नूर बदरंग सी लगती है,,,
फिर यादो में आगई तेरे अहसाश की खुशबू अच्छा लगा ,,
मायूश हूँ अबकी खिजा तक शायद जिन्दा न रह पाउँगा ,,,
जब से सुना उनको कब्र देखने की है जुस्तजू अच्छा लगा ,,,,
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Friday, 21 May 2010

कभी हाँ कभी न तेरा ये बहाना बुरा लगता है ,,,,(प्रवीण पथिक,)

तेरा ये बनावटी सा मुस्कराना बुरा लगता है,,,
कभी हाँ कभी न तेरा ये बहाना बुरा लगता है ,,,,
कितनी तंगी खुशहाली साथ काटी थी हमने,,,,,
ये जिन्दगी यूँ अधर में छोड़ जाना बुरा लगता है ,,,
उम्र आंकते हुए खिची थी लकीरे जो दीवारों पर,,,
आज उन लकीरों को मिटाना बुरा लगता है ,,,
भुर भुरा कर गिर गयी चौखट पुराने घर की ,,,
बनावट के नाम पर घर गिराना बुरा लगता है,,,
आशूं छलक पड़ते है देख माँ की तस्वीर को,,,
अभी बच्चा ही तो हूँ यूँ छोड़ जाना बुरा लगता है ,,,
वो कैसे भूत शैतान कह कर बुलाया करती थी ,,,
अब किसी का नाम लेकर बुलाना बुरा लगता है,,,,
हर पल सुलगता हूँ उन पुराने दिन के अहसासों में,,
एक पल को भी अहसासों को भुलाना बुरा लगता है ,,,

Thursday, 20 May 2010

यहाँ तो चुग्गा भी मिलता है मजहब बताने पर,,,,(प्रवीण पथिक)

तंग हाली जब मुस्कराती है मेरे मुस्कराने पर,,,
जाहिरात छुप नहीं पाते मेरे लाख छुपाने पर ,,,,,
इन नर्म फूलो से कांटो के वायस मै क्या पूछू ,,,
हर पाख जख्मी है बिखर जाता है सहलाने पर...
इस जहां में इल्म ओ हुनर का सम्मान ऐसा है,,,,
हाथ कलम किये जाते है ,ताज महल बनाने पर ,,,,
मैंने सभाल कर रखी है अपनी जां वतन के वास्ते ,,,,,
वो दहशत गर्द करार देते है वन्देमातरम न गाने पर,,,
शहर ए अमन का माहौल इतना मजहबी हो गया है,,
रोज तलाशता हूँ नयी -नयी गली आने जाने पर,,,,
बड़ी मायूशी में है आसमान के माशूम परिंदे ,,,,,
यहाँ तो चुग्गा भी मिलता है मजहब बताने पर,,,,
बेशक खुदा तू एक है , पर कायम न रह पायेगा ,,,
कुछ बाकी न रखेगे तुझे भी मजहबी बंनाने पर,,,,