जब तीव्र विकल मन रोता है ,,,
तीखी पलकों की नोकों से ,,
मानो धरणी का अंतस ,,
विखर रहा हो ॥
तेज हवा के झोको से ,,
सब द्रग अपलक देख रहे है ,,
सांसो की तेज वहारो को ,,
संग्राम विजित सी गंगा हो ,,
उसकी चंचल धारो को ,,,
कौमार्य साधने को ,,
कन्या की आज परिक्षा है ,।
या धैर्यशील वीरो की ,,,
व्यभिचारी इच्छा है ,,,
ज्ञान सुप्त कुमुदनी सा ,,
कुंठित होता जाता है ,
जो सागर तन में क्रीडा करता ,,
उसमे डूबा जाता है ,
क्यों मौन शब्द क्ष्र्न्ख्लाओ के ,
अनवरत मैं भाल सहूँ ,
क्यों कर्तव्य विमुख हो ,
मन की टेडी चाल सहूँ ,,
सब लोल विलोल हिलोल हुए ,
सब जीर्ण हुए सब गोल हुए ,
सब फिसल रहे ,
सब डाबा डोल हुए,
कभी वेदना के सागर में ,,
उसके तीव्र हिलोरो से ,,
कहकहे सुनाई देते है ,,
हर चपला सी चपल हँसी,
कानो में शीशा भरती है ,,
मानो बेढंगे की हर ऊँगली ॥
तबले पर चोटे धरती है ,,
मैं समुद्र शांत सा स्थर मन ,,
करके बढ़ता जाता हूँ ॥
हर कठिनाई से कठिनाई का
रास्ता पढता जाता हूँ ,
हर विष कलश डालता हूँ ,,
कंठो में गंगा के सुभषित जल सा ,
हर बार झेलता हूँ ,,
स्म्रतियों के पल सा ,,,
2 comments:
अच्छी कविता है।
बढिया रचना है।बधाई।
Post a Comment