प्रगति और प्रगतिशीलता का ,,
अवचेतन मन से ,,
तौल रहा था अपनी नीति,
संस्क्रती की अवनति,,
व्यवहारिकता के तराजू पर रख कर,,,
और बार बार उठा रहा था लान्छन,,,
अपने जमीर पर ,,
दे रहा था शाव्दिक गलियाँ ,,
अपनी नियति को ,,
हर बार दे रहा था पश्चिमता की दुहाई ,,
प्रगति की राह पर ,,
क्यों की कथित प्रगतिवादी जो हूँ ,,,
जड़ से कटना नहीं चाहता ,,
पर प्रगति जो करनी है ,,
नहीं खोना चाहता पहिचान को ,,
पर नयी पहिचान कैसे लूंगा ,,,
खुद को प्रगति वादी कैसे कहूंगा ,,
सम्पूर्णता और अपूर्णता के द्वंद में ..
अर्ध विछिप्त सा फिर रहा हूँ,,
पकड़ रखी है प्रगति की सीढ़ी ,,,
संस्क्रती और सभ्यता के जिस्म पर ,,
पैर रख कर,,,
दर्द है ,,
आँख भरी है ,,,
पर भावशून्य हूँ ,,,