जब मन अनुभूत करता है ,,,
अनावश्यक की जिज्ञासा ,,,
और प्रयाश करता है ढूडने का,,,
अनुत्तरित से कुछ प्रश्नों का उत्तर ,,,
तब संवेदनाये जैसे मर सी जाती है,,
तब रह जाती है केवल और केवल,,,
पिपाशा
अनुपलब्धता को उपलब्ध करने की ,,
अनुपस्थित को उपस्थित करने की ,,,
अप्राप्त को प्राप्त करने की ,,,,
सुप्त इच्छाये भी तब होने लगती है ,,,
जाग्रत ,,,
या यूँ कहे इच्छाओं का साम्राज्य ,,,
एक और उपलब्धि की चाहत ,,,
बढा देती है और उत्कंठा ,,,
बढा देती है और कुंठा ,,,
तब एक छत्र राज्य होता है ,,,
निष्क्रियता का ,,,
बढती जाती है तुझसे दूरी ,,,
कदम दर कदम ,,,,,
हर कदम अन्मिलन की ओर बढ़ता जाता हूँ
क्यों की वही तो है इच्छाओं की इति ,,,
और पतन की इति भी ,,,,
अनावश्यक की जिज्ञासा ,,,
और प्रयाश करता है ढूडने का,,,
अनुत्तरित से कुछ प्रश्नों का उत्तर ,,,
तब संवेदनाये जैसे मर सी जाती है,,
तब रह जाती है केवल और केवल,,,
पिपाशा
अनुपलब्धता को उपलब्ध करने की ,,
अनुपस्थित को उपस्थित करने की ,,,
अप्राप्त को प्राप्त करने की ,,,,
सुप्त इच्छाये भी तब होने लगती है ,,,
जाग्रत ,,,
या यूँ कहे इच्छाओं का साम्राज्य ,,,
एक और उपलब्धि की चाहत ,,,
बढा देती है और उत्कंठा ,,,
बढा देती है और कुंठा ,,,
तब एक छत्र राज्य होता है ,,,
निष्क्रियता का ,,,
बढती जाती है तुझसे दूरी ,,,
कदम दर कदम ,,,,,
हर कदम अन्मिलन की ओर बढ़ता जाता हूँ
क्यों की वही तो है इच्छाओं की इति ,,,
और पतन की इति भी ,,,,