मन के उद्देव्ग जब करते है तलाश ,,३
संभाविता की ,,,,,,,,,,,,,
जब शुरू होती है ,,,
आत्म विश्लेषण की प्रव्रति,,,,
जब निरन्तर होने लगता है ,,,
निर्धारण ,,,,,,,,,,,,
पूर्ण और अपूर्ण का ,,,,,
गेय और अज्ञेय का ,,,
गम्य और अगम्य का ,,,
प्राप्य और अप्राप्य का ,,,,
सच में तभी होता है,,,,
उत्क्रस्टता की ओर गमन ,,,
निश्चल उत्क्रस्टता ,,,
खुद ही होने लगती है अर्जित ,,,
छलता और विचलता होती है पराजित ,,
निश्चित ही प्रस्फुटित होने लगता है ..
कुछ उदबोधन,,,,,
अंतरात्मा की विहंगमता से ,,,,,,,
प्रकट होने लगती है समता विषमता से ,,,,
तब मन निर्भय हो मान खोकर ,,,
हो जाता है अहल्दित ,,,
सच में सत जीवन की यही शुरुआत है,,,,
संभाविता की ,,,,,,,,,,,,,
जब शुरू होती है ,,,
आत्म विश्लेषण की प्रव्रति,,,,
जब निरन्तर होने लगता है ,,,
निर्धारण ,,,,,,,,,,,,
पूर्ण और अपूर्ण का ,,,,,
गेय और अज्ञेय का ,,,
गम्य और अगम्य का ,,,
प्राप्य और अप्राप्य का ,,,,
सच में तभी होता है,,,,
उत्क्रस्टता की ओर गमन ,,,
निश्चल उत्क्रस्टता ,,,
खुद ही होने लगती है अर्जित ,,,
छलता और विचलता होती है पराजित ,,
निश्चित ही प्रस्फुटित होने लगता है ..
कुछ उदबोधन,,,,,
अंतरात्मा की विहंगमता से ,,,,,,,
प्रकट होने लगती है समता विषमता से ,,,,
तब मन निर्भय हो मान खोकर ,,,
हो जाता है अहल्दित ,,,
सच में सत जीवन की यही शुरुआत है,,,,
6 comments:
मन के कशमकश को बड़े सुन्दर शब्दों में बाँधा है....सही है जब तक ईमानदारी से
आत्मविश्लेषण ना किया जाए....सत् की प्राप्ति नहीं होती.
मन के उद्देव्ग ki uttam abhivyakti...!
बहुत सुंदर अभिव्यक्ति.....
प्रकट होने लगती है समता विषमता से ,,,,
तब मन निर्भय हो मान खोकर ,,,
हो जाता है अहल्दित ,,,
सच में सत जीवन की यही शुरुआत है,,,,
सुन्दर भावों से सजी रचना के लिए साधुवाद!
बहुत गहरी रचना...मन के उद्वेग शब्दों में उतरे..
प्रवीण भाई
जरा देखियेगा.. उद्देव्ग होता है या उद्वेग..
ऐसे ही उत्क्रस्टता है या उत्कृष्टता
आशा है अन्यथा न लेंगे. मैं भाषाविद नहीं बस ऐसे ही..मित्रवत ध्यान गया.
मानव जीवन के अन्तर्दुअन्द को बहुत सुन्दर तरीके से शब्दों मे उतारा है। शायद टाईप मे कुछ अशुधियाँ मेरी तरह ही रह जाती हैं लेकिन तुम्हारी रचना उ8च्च कोटी की होती है इस लिये त्रुटियों को नज़र अन्दाज़ नहीं किया जा सकता एक उत्क्रिस्ट्ता भी शायद उत्कृष्टाटता होना चाहिये था । बहुत बहुत आशीर्वाद्
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