Thursday, 11 March 2010

कर्जे में करती हलाल होली ,,,( प्रवीण पथिक, )

मेरी मुस्कान होली , तेरी शान होली ,,,,
मीठे पकवान होली ,, ऊँची दुकान होली,,,,
नीली होली ,काली होली, पीली होली,,,,
लाल और रंगों रंगान होली ,,,,,
पर कुछ की सफ़ेद और बेजान होली ,,,
उजडती दुकान होली सूखते खलिहान होली ,,
भूखी जुबान होली ,,, झूठी शान होली ,,,
तडपती पहिचान होली ,, दिखावटी आन होली ,,,
रोती मुस्कान होली ,,चीखती जबान होली ....
फिर भी रंगों से सराबोर होली,,,
खिलखिलाती बिभोर होली ,,,,,,
इधर भी उधर भी चारो ओर होली ,,,
जीने को मुहाल होली ,, भूंख से बेहाल होली ,,,
चलती कुदाल होली ,,,खिचती खाल होली ,,,,
पसीने से माला माल होली ,,, सूनी और कंगाल होली ,,,
तिरछी मोटी रोटी सस्ती दाल होली ,,,
कर्जे में करती हलाल होली ,,,
तेरी होली मेरी होली ,,,
अपनी अपनी सभाल होली ,,
फाकामस्ती की अपनी मिशाल होली ,,,
कितनी है कमाल होली ,,,
फिर भी कहूँगा महान होली ,,,
क्यों की मेरी मजबूरी की मुस्कान होली ,,
और तेरी झूठी शान होली







Friday, 5 March 2010

नपुंसक सरकार भरोसा अन्धा चहिए,,,(प्रवीण पथिक, )

नपुंसक सरकार भरोसा अन्धा चहिए,,,
लोकतंत्र बीमार भरोसा अन्धा चहिए,,,
महँगाई की मार भरोसा अन्धा चहिए,,,
जनता है लाचार भरोसा अन्धा चहिए,,,
भूखा है घर बार भरोसा अन्धा चहिए,,,
कुदरत की भी मार भरोसा अन्धा चहिए,,,
सोता है दरबार भरोसा अन्धा चहिए,,,
वादे है बेकार भरोसा अन्धा चहिए,,,
पिसते है बेजार भरोसा अन्धा चहिए,,,
होगा कभी सुधार भरोसा अन्धा चहिए,,,
लूटने के कई प्रकार भरोसा अन्धा चहिए,,,
बिकता है बाजार भरोसा अन्धा चहिए,,,
चुप्पी साधे अखबार भरोसा अन्धा चहिए,,,
मिलते नित नए प्रहार भरोसा अन्धा चहिए,,,
कोई हटा देगा भर भरोसा अन्धा चहिए,,,
होती हर दिन हार भरोसा अन्धा चहिए,,,
पूंजी शिक्षा का आधार भरोसा अन्धा चहिए,,,
चारो ओर विकार भरोसा अन्धा चहिए,,,
आएगी कभी बहार भरोसा अन्धा चहिए,,,
समता है बीमार भरोसा अन्धा चहिए,,,
नेता दंगो के सरदार भरोसा अन्धा चहिए,,,
होगाकभी उपचार भरोसा अन्धा चहिए,,,
होगा सुखी संसार भरोसा अन्धा चहिए,,,
नपुंसक सरकार भरोसा अन्धा चहिए,,,

Tuesday, 16 February 2010

हिन्दू नमाजे पढ़े और मुस्लिम जय बोल दे ,,,(प्रवीण पथिक ,)

आओ हम मिल मिला कर सब संताप हर दे ,,,,
बुझ चुकी समता मशालो में फिर ताप भर दे ,,,
राष्ट्र की गरिमा पुनः उत्थान की सीढ़ी चढ़े ,,,
रहमान के रहबर बढे और राम की पीढ़ी बढे ,,
समता का ऐसा रंग हम जन जन में घोल दे,,
हिन्दू नमाजे पढ़े और मुस्लिम जय बोल दे ,,,
धर्म की लकीरे मिटे और जाति बन्धन खोल दे,,
हम वेद मंत्रो की ध्वनी में भी राष्ट्र वाद भर दे ,,,
आओ हम मिल मिला कर सब संताप हर दे ,,,,
बुझ चुकी समता मशालो में फिर ताप भर दे ,,,
शोषितों के हाथ में हो सामराज्य की डोरिया,,,
कोई भूख से व्याकुल न हो, ना कोई भरे तिजोरिया ,,,
सम्वेदनाए ऐसी जुडी हो माँ भारती की शान से ,,,
गफलत में भी कोई अनादर न करे जुबान से ,,,
मिट चुकी जो खून की गर्मी यहाँ से वहा तक ,,,
नस्ले शोधित करे फिर नया शुधार कर दे ,,,
आओ हम मिल मिला कर सब संताप हर दे ,,,,
बुझ चुकी समता मशालो में फिर ताप भर दे ,,,
हो अमन का माहौल सब राज्य मिल कर बढे ,,,
गुजरात हो महाराष्ट्र हो या बिहार सब साथ ही चढ़े ,,,
मिटा कर क्षेत्र के बन्धन और बोली की कमजोरिया..
हम राष्ट्र वादिता की भावना प्रबल कर दे
बाँध कर बिखरी हुयी भुजाओं को सबल कर दे ,,,
फूंक कर सम्मान की चिंगारी ज्वाला प्रबल कर दे ,,
आओ हम मिल मिला कर सब संताप हर दे ,,,,
बुझ चुकी समता मशालो में फिर ताप भर दे ,,,
हम शांति के रक्षक सही पर नपुंसक है नहीं ,,,,
जो काल बन कर टूटते थे रणजीत टीपू है वही ,,,,
मन की कोमल बहुत है मगर पामर है नहीं
हम समसीर है तलवार है कायर है नहीं
जो तूती हमारी बोलती थी समग्र संसार में,,,
फिर उठे मिल कर वही आधार कर दे
आओ हम मिल मिला कर सब संताप हर दे ,,,,
बुझ चुकी समता मशालो में फिर ताप भर दे ,,

Tuesday, 9 February 2010

फिर भी वो कहते है की मै लाजबाब सा हूँ ,,,,

मै मगरूरियत में डूबी हुयी युवा पीढ़ी,,,,
उसपे आधुनिक फैशन का दबाब सा हूँ,,,,
फिर भी वो कहते है की मै लाजबाब सा हूँ ,,,,
मै अनपढ़ी इबारत हूँ कुरआन की ,,,,,
बरको में बँटी अधलिखी किताब सा हूँ ,,,
फिर भी वो कहते है की मै लाजबाब सा हूँ ,,,,
मै माथे पर पड़ी अधेड़ झुर्रिया ,,,,,
बेबसी में झुकी कमर पर महगाई दबाब हूँ,,,
फिर भी वो कहते है की मै लाजबाब सा हूँ ,,,,
मै चिंघाड़ सी आवाज हूँ मजलूमों की ,,,,,
शोषित होकर भी शोषण का जबाब सा हूँ ,,,
फिर भी वो कहते है की मै लाजबाब सा हूँ ,,,,
हूँ बक्त की तासीर का आशिक.....
बद बक्त भी बक्त के सुझाब सा हूँ ...
सिद्द्तो से सबारी संस्क्रति का वारिस हूँ ,,,,
स्वीकारता नकारता स्वभाव सा हूँ ,,,,,
मै निरन्तर संपुटित होती मनो इच्छा हूँ ,,,,
पूरित होकर भी कुछ अभाव सा हूँ ,,,,
फिर भी वो कहते है की मै लाजबाब सा हूँ ,,,,
मै रिश्तो में गढ़ रही नवीन परिभाषा ,,,,
मैसंक्रीणता हूँ आत्मीयता का अभाव सा हूँ
फिर भी वो कहते है की मै लाजबाब सा हूँ ,,,,


Tuesday, 2 February 2010

मन


जाने क्यूँ कर्तव्यों की इति श्री ,,
करके मन हो रहा है आंदोलित ,,,
निर्भय होकर क्यों नहीं चाहता ,,,
मग्न रहना उसमे ,,,,
जो है उसकी नियति ,,,,
क्यों अकारण ही ,,,
चाहता है विलय होना उसमे ,,,३
जो है उसकी अवनति के कारक ,,,
अपूर्ण ही सही ,,,,
क्यों नहीं स्वीकार करता ,,,
अपनी भाग्य उपलब्धता को ,,,
क्यों बाँधता रहता है सीमाए उन पर ,,,
जो है उसके हास के कारक ,,,,
क्यों करता है आकलन,,,,,,,
अपनी उपलब्धि और अनुपलब्धि का ,,,
निजता में रख कर ,,,
जब की ये वैयक्तिक नहीं है ,,,
आखिर फिर क्यों रहती है ,,,
प्राप्य की उत्कंठा ,,,,,
जो प्राप्य उपलब्ध ही नहीं ,,,,
विलय ही है अंत ,,,
जिस अंत हीन यात्रा का ,,,
हे स्वामी क्या दोगे मुक्ति ,,,,
हे स्वामी क्या दोगे शक्ति ,,,,,,

Wednesday, 27 January 2010

अनुभूति


जब मन अनुभूत करता है ,,,
अनावश्यक की जिज्ञासा ,,,
और प्रयाश करता है ढूडने का,,,
अनुत्तरित से कुछ प्रश्नों का उत्तर ,,,
तब संवेदनाये जैसे मर सी जाती है,,
तब रह जाती है केवल और केवल,,,
पिपाशा
अनुपलब्धता को उपलब्ध करने की ,,
अनुपस्थित को उपस्थित करने की ,,,
अप्राप्त को प्राप्त करने की ,,,,
सुप्त इच्छाये भी तब होने लगती है ,,,
जाग्रत ,,,
या यूँ कहे इच्छाओं का साम्राज्य ,,,
एक और उपलब्धि की चाहत ,,,
बढा देती है और उत्कंठा ,,,
बढा देती है और कुंठा ,,,
तब एक छत्र राज्य होता है ,,,
निष्क्रियता का ,,,
बढती जाती है तुझसे दूरी ,,,
कदम दर कदम ,,,,,
हर कदम अन्मिलन की ओर बढ़ता जाता हूँ
क्यों की वही तो है इच्छाओं की इति ,,,
और पतन की इति भी ,,,,

Wednesday, 20 January 2010

अनन्त लक्ष्य की उड़ान ,,,


जब संपुष्टता के कुछ पंख ,,,
निर्भीकता के पथ पर ,,,
भरते है अनन्त लक्ष्य की उड़ान ,,,
अदम्य जीवन का सच ,,
मानो होने लगता है मुखरित ,,
यही तो पहली उड़ान है ,,,
और शायद अंतिम भी ,,
क्यों की यही तो इति है ,,,
और अति भी ,,,
भ्रम सारे हो जाते है विन्यासित ,,,
छोड़ कर अस्पस्टता का दामन ,,,
मन तीव्र पीड़ा से निकल
खुद ढूंडने लगता है अपने लक्ष्य को ,,
जो की है निश्चय ही संतुस्टी ,,,
यही तो है मिलन की इति भी ,,,
असीम नियन्ता ,,,
और तुझे जानने का कारक,,,
और कारण भी


Tuesday, 12 January 2010

उदबोधन


मन के उद्देव्ग जब करते है तलाश ,,३
संभाविता की ,,,,,,,,,,,,,
जब शुरू होती है ,,,
आत्म विश्लेषण की प्रव्रति,,,,
जब निरन्तर होने लगता है ,,,
निर्धारण ,,,,,,,,,,,,
पूर्ण और अपूर्ण का ,,,,,
गेय और अज्ञेय का ,,,
गम्य और अगम्य का ,,,
प्राप्य और अप्राप्य का ,,,,
सच में तभी होता है,,,,
उत्क्रस्टता की ओर गमन ,,,
निश्चल उत्क्रस्टता ,,,
खुद ही होने लगती है अर्जित ,,,
छलता और विचलता होती है पराजित ,,
निश्चित ही प्रस्फुटित होने लगता है ..
कुछ उदबोधन,,,,,
अंतरात्मा की विहंगमता से ,,,,,,,

प्रकट होने लगती है समता विषमता से ,,,,
तब मन निर्भय हो मान खोकर ,,,
हो जाता है अहल्दित ,,,
सच में सत जीवन की यही शुरुआत है,,,,

Wednesday, 6 January 2010

कुछ स्याह ध्वनिया


अनमने मन से मै ,आत्मसंतुष्टि के द्वारा ,,
अविलम्बित जीवन के, अनुत्तरित से प्रश्नों को
अचंभित हो कर देख रहा था ,,
कर रहा था पूर्वालोकन ,,
आलौकिक और आकस्मिक ध्वनियों का ,,
जो प्रतिध्वनित हो रही थी,,
मेरी अंतरात्मा के भीतरी प्र्ष्ठो से ,,
कुछ स्याह ध्वनिया लग रही थी ,,
प्रश्न्योचित उत्तरों सी ,,,
मै विस्मित था ,,,
निरन्तर क्षीण होती इच्छाशक्ति ....
खो रही थी संबल ,,,
फिर भी मै मौन एवं सचेत था ,,,
ओढ़ रखी थी मैंने गम्भीरता ,
छदम सहनशीलता का आलम्बन लेकर,,,,
असहनीय हो रही उत्कंठा और जुगुप्सा ,
आत्मकेंद्रित हो कर,,,
दिखाना चाहती थी अपनी उपस्थिति का कारण ,,
पर मन मौन ही ,,
बुन रहा था निर्लिप्तता का अंत हीन आवरण ,,,
शायद कुछ अस्पस्ट ही सही ,,,
घट तो रहा था ,,
तभी तो मै मौन और सम्बल हीन होकर भी ,,,
मह्शूश कर रहा हूँ आलम्बन ,,,
हे दया निधे सारी तेरी ही कृपा है,,,,

Friday, 1 January 2010

और बरस एक बीत चला ,,,


pOrkut MySpace Hi5 Scrap Images
और बरस एक बीत चला ,,,

और बरस एक बीत चला ,,,
सांसो का संगीत चला ,,,
पिछली सब धूमिल यादे,,,
अंकित करता अंकित करता,,,
अपनों का ये मीत चला ,,,
और बरस एक बीत चला ,,,
सब मीठी वा तीखी यादे ,,,
कुछ आधे कुछ पूरे वादे ,,,
आगोसो में अपने लेके ,,,
जीवन का ये मीत चला ,,,
और बरस एक बीत चला ,,,
कर धैर्य परिक्षा जीवन की ,,,
ले अग्नि परिक्षा इस तन की ,,,
साहस की एक सीख सिखा के ,,,
अपनों से हो भय भीत चला ,,,
और बरस एक बीत चला ,,,
रखूगा तुमको यादो के ,,,
सुंदर से एक झरोखे में ,,,
रातो का सपना जैसे,,,
अपनों का ये मीत चला ,,,
और बरस एक बीत चला,,,
आने बाला कल होगा,
यादो का सगूफा जैसे ,,,
तुम अंतस के चेरे थे ,,,
भूलूंगा तुमको कैसे ,,,
भरती आँखों का गीत चला ,,,
और बरस एक बीत चला ,,,

प्रवीण पथिक