Monday, 15 June 2009

मार्गदर्शक बनो ,,


मार्गदर्शक बनो ,,
कर्तव्य का बोध करा दो,,
सुपथ में मुझे लगा दो ,,,
लक्ष्य च्युत हूँ मैं ,,
पथ विमुख हूँ मैं ,,,
अज्ञान के भवर से ,,
ज्ञान के थल तक ,,
नैया पार लगा दो ,,,
कर्तव्य का बोध करा दो ,,
सुपथ में मुझे लगा दो ,,
क्या सत क्या असत ,,
सोच दिग्भ्र्मीत होता हूँ ,,
इस सत असत के क्षोभ से ,,
इस जग द्वंद के लोभ से ...
छोड़ सारी रीतिया ,,
अपना अनेक कुरीतिया ..
प्रकश नित ढूडता हूँ ,,
गर्त में नित बूड़ता हूँ ,,
और तमिष और तमिष,,
मैं खुद बढा रहा हूँ ,,
सत्य सत्य छोड़ के ,,
असत्य पथ पढ़ा रहा हूँ
छोड़ना चाहता इस कलुष द्रश्य को ,,
चाहता जगनी ब्रह्म स्र्द्श्य हो ,,,
पर बधा हूँ विकल हूँ ,,
छूटता दामन नहीं,,,
टूटता बंधन नहीं ,,
बन्धनों को काट मुक्ति दिला दो ,,,
निज साक्षात्कार करा दो ,,
सुपथ में मुझे लगा दो ,,,
कर्तव्य का बोध करा दो ,,,
मार्ग दर्शक बनो ,,,,

4 comments:

अजय कुमार झा said...

बहुत ही सुन्दर रचना है प्रार्थना की तरह...लिखते रहे...

Udan Tashtari said...

सुन्दर!

M Verma said...

bahut achchhi rachana
badhai

परमजीत सिहँ बाली said...

बहुत बढिया रचना है।बधाई।