Wednesday, 22 July 2009

दानो की भाषा में अब और दिलासा नहीं चाहिए ||,,(कविता)


चाचा मामा ताऊ अंकल हो चाची ताई आंटी ,,

रिस्तो की यैसी परिभाषा नहीं चाहिए ,,

विद्यालय स्कूल बने विद्या एजूकेशन ,,,
पावन शब्दों में येसी भाषा नहीं चाहिए ,,,
लेड उगल दे धरती और सांसो में co2 हो ,,

प्रगति की यैसी आशा नहीं चाहिए ,,,,

हर सर को छत और हर हाथो को काम मिले ,,

दानो की भाषा में अब और दिलासा नहीं चाहिए ,,

संस्क्रति की हो चिंदी चिंदी और सभ्यता को गाली ,,

परिवर्तन की आडो में अब और कुहासा नहीं चाहिए ,,

संग्रामो की गाथा हो और हो इंसानों को खतरा ,,,

एटम परमाणु की अभिलाषा नहीं चाहिए ,,

गौरव हो पानी पानी हो सम्मानों में अपमान ,,,

पॉप और राक का खूब हुलासा नहीं चाहिए ,,,

कौन मांगता फूलो की तुम आहुति दो ,,,,

पर नंगे पन का और जवासा नहीं चाहिए ,,,

क्यों समलिंगता सम्मभोगो की हो लम्बी बहसे ,,,

बर्षो से जो छुपा खुलासा नहीं चाहिए ,,,

मानूँगा गा परिवर्तन और उत्थानो का सम्मान करूँगा ,,
पर निज गौरव हो दवा दवा सा नहीं चाहिए ,,,,

7 comments:

कुन्नू सिंह said...

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निर्मला कपिला said...

प्रवीन तुम्हारी कविता पढ कर इस लिये खुशी नहिं हो रही कि ये कविता बहुत अच्छी है बल्कि इस लिये कि ये कवित एक युवा कवि के समाज के प्रति सरोकारों और आक्रोश को दर्शाति है तो ये राश्ट्र के लिये एक अच्छा संकेत है आज के युवा अगर ऐसा सोचने लगें तो कोई कारण नेहीं कि देश की ख्ती जा रही मर्यादा को नियम्त्रित ना कर सकें
संस्कृति की हो चिँदी 2 और सभ्यता हो खाली 2
परवर्तन की आडों मे अब और कुहासा नहीं चाहिये
लाजवाब बधाई और इस जज़्वे को बनाये रखना आशीर्वाद्

ओम आर्य said...

जब्बदस्त ......बन्धू ......ऐसी ही भावनाओ से लिखते रहे ......सुन्दर

उम्मीद said...

praveen ji sab se badi baat ki aap ki is kavita se pata chalta hai ki samaj or desh main chal rahe parivertan se aap bhut dukhi hai......

aap ki kavita main bidhro sarvatr dikhai deta hai ......par hum kawal kah kar kuch nahi kar sakte !!
main aap se punchna chahti hu ki aap ne ise sudharne ke liye kuch kiya hai?.....kabhi khade hue hai kisi annaye ke khilaf ...dekh kar afsos to sab kar lete hai par uth kar is sisakti manavta or marti sanskriti ko koi sahara nahi deta .

rachna main jo mudda uthaya gaya hai sarthak hai par is ka upay bhi hu jaise yuba hi kar sakte hai ......kya aap ne in sab ka koi hal socha hai....din din hum paschimi sabhitya ki or badh rahe hai par apne hi sanskaro ke padh ko hum tahni se nahi tane se kat rahe hai ......kuch to karna hoga ...hum ko hi, kisi or ko nahi. i hope you understand what i am saying. koi hame bachane nahi ayega , hame apni raksha khud karni hogi ....ek udharan yaad aa gaya :
"जंगल का राजा सिंह सबसे ज्यादा पराक्रमी, बलशाली और शक्तिशाली होता हें । इतना सामर्थ्यवान होने के बाद भी
उसके मुख में शिकार अपने आप आकर नहीं गिरता। उसे भी उठकर परिश्रम करना पड़ता हें ।
दुनियाँ में चाहे कोई कितना भी समर्थ हें या असमर्थ हें, निर्बल या बलशाली हें, हर एक को परिश्रम करना पड़ेगा,
अगर वह सफलता प्राप्त करना चाहता हें"।

to agar kuch theek karna hai to khud hi karna hoga ab gandhi nahi ayega hamare liye goli khane
ab to apne seene par khud hi goil khani hogi

श्यामल सुमन said...

रचना उत्प्रेरण के भाव भरे हैं। लगता है वर्तमान हालात से उपजी एक युवक की पीड़ा लेखनी से निकल पड़ी। सार्थक रचना। चलिए मैं भी कुछ जोड़ दूँ-

साठ बरस से सुन सुन के सब आजिज हैं
आश्वासन का और बताशा नहीं चाहिए

हाँ एक बात और प्रवीण जी - जवासा शब्द से आज ही मेरा परिचय हुआ और शब्द-कोश का सहारा लिया हूँ। चलिए आप इसका कारण तो बने। हार्दिक शुभकामना।

नीचे आपकी कविता के कुछ शब्द हैं, जो अशुद्ध टाइप हो गए हैं। इन्हें सुधार लीजियेगा।

"रिस्तो - रिश्तों, यैसी - ऐसी, संस्क्रति - संस्कृति, आडो - आड़ों, मानूँगा गा - मानूँगा, दवा सा - दवा-सा",

सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com

अजय कुमार झा said...

प्रिय प्रवीण जी..
इसमें कोई शक नहीं की कविता का अंदाज आपकी उसे कहने की शैली..शब्द और सबसे बढ़कर आपकी अद्भुत सोच ने काफी प्रभावित किया..बांकी बात श्यामल भाई कह ही चुके हैं..हालांकि हम समझ तो सब कुछ गए हैं...बहुत ही उम्दा रचना ..अब आपको नियमित पड़ता रहूंगा..लिखते रहे..शुभकामनायें....

संगीता पुरी said...

बहुत अच्‍छी रचना लिखी है आपने .. भावों को बहुत सुंदर अभिव्‍यक्ति देते हैं आप .. कितने दिनों तक इंतजार करें हम .. आपका जोश और उत्‍साह देखते ही बनता है .. उज्‍जवल भविष्‍य के लिए बहुत बहुत शुभकामनाएं !!