
तुम कहते हो गीतों में,,,
अभिनन्दन दूँ ,,,
बाणी की मृदुल व्यंजना से ,,
वंदन दूँ ,,,,,
क्यों ह्रदय शूलता को,,,
नहीं समझते हो मित्रो ?
क्यों गहन मौनता को ,,
नहीं समझते हो मित्रो ?
जब ह्रदय वेदनाकुल हो ,
फिर गीतों को कैसे गाऊं?
जब चीत्कार भरी हो बाणी में ,,
फिर उसमे धुन कैसे लाऊं ?
जब अंतस में भास्मातुर,,,
ज्वाला हो ,,,,
जब लहू बन चुका क्रोधातुर,,
हाला हो ,,,
जब आँखों से केवल ,,
लपटे निकल रही हो ,,,
जब शब्दों में केवल ,,,
डपटे निकल रही हो ...
ऐसे जंगी मौसम में मैं ,,,
प्रेमातुर गीत नहीं गा सकता ,,,
इन युद्घ गर्जनाओं में मैं ,,,,
संगीत नहीं ला सकता ,,,
जब पीड़ित जन के आंसू ,,
मेरी बाणी का संबाद बने हो ,,
जब मेरे जीवन जीने का ,,
स्तम्भन भी अवसाद बने हो ,,,
जब शब्दों में दुखियारों का,,,
रुदन गूंजता हो ,,,,,
जब आँखों में बेचारों का,,,
सदन घूमता हो ,,,,
तब मैं प्रेमी पथ का ,,,
पथगामी कैसे बन जाऊं ,,,
तब मैं मानो मनुहारों का ,,,,
अनुगामी कैसे बन जाऊं ,,,
मैं कविता नहीं सुनाता ,,,
उनके आंसू रोता हूँ ,,,
वो पीते है जिनको पल पल,,,
मैं वो आंसू खोता हूँ ,,,,
घुट घुट जीते धरती पुत्रो की,,,
मैंने तंगी देखी है,,,
रोटी की गिनती करती ,,
तस्वीरे नंगी देखी है ,,,,
बचपन में बूढे होते बच्चो की ,,,
तकदीरे अधरंगी देखी है ,,,,
अब शब्द शब्द संजालो से ,,,
भर गीत कहाँ से लाऊं ,,,
जब ह्रदय वेदनाकुल है ,,,
फिर गीतों को कैसे गाऊं ,,,
अब तो मन करता है इनके रोने में ,,,
अपना क्रन्दन दूँ ,,,,
तब तुम कहते हो गीतों में,,,
अभिनन्दन दूँ,,,,
11 comments:
बहुत खुब, मार्मिक रचना,।।
जब हृदय वेदनाकुल है,
फिर गीतों को कैसे गाउं ।
अब तो मन करता है इनके रोने में ,
अपना क्रंदन दूं।
तब तुम कहते हो गीतों में,
अभिनंदन दूं ।
बहुत मार्मिक रचना है .. समाज की समस्याओं पर नजर रहती है आपकी .. निरंतर निखरती जा रही है आपकी लेखनि .. बधाई !!
बहुत बढ़िया ..!!
असलियत से रूबरू कराती। इस कविता में अनेक नेक रस मौजूद हैं और सच्चाई की वीभत्सता भी। जिससे आंखें नहीं फेरनी चाहिएं, कवि की यही दृष्टि मोहित करती है।
बहुत खूब प्रवीण जी। किसी ने कहा है कि-
कभी आँसू तो कभी खुशी बेची, हम गरीबों ने बेकसी बेची
चंद सांसे खरीदने के लिए, रोज थोड़ी सी जिन्दगी बेची
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com
बहुत खूब!!! भावपूर्ण!!
जब हृदय वेदनाकुल है,
फिर गीतों को कैसे गाउं ।
अब तो मन करता है इनके रोने में ,
अपना क्रंदन दूं।
तब तुम कहते हो गीतों में,
अभिनंदन दूं ।
प्रवीन आज तो तुम्हारी इस मर्म्स्पर्शी अभिव्यक्ति पर नमन कर्ने को जी चाहता है निशब्द हो जाती हूँ तुम्हारी रचनाओं को पढकर मेरे पास तो तुम्हारे जितने शब्द भी नहीं हैं बस इत्ना ही कहूंम्गी कि समाज की चिड्म्वनाओं के प्रति संवेदना समेते लाजवाब अभिव्यक्ति है बहुत बहुत आशीर्वाद्
सत्यता से भरी सुंदर अभिव्यक्ति
मार्मिक....... सत्य है इस रचना में.......Sundar hai aapka blog
बिलकुल सच कहा आपने आज हमारा बचपन ही बुढा हो गया है और जिस देश का बचपन ही प्रोढ़ हो उस देश का भविष्य निश्चित ही अंधकार में है......हमें इनके बचपन को बचपन बनाने की लिए कदम उठाने ही होंगे
जब ह्रदय वेदनाकुल है ,,,
फिर गीतों को कैसे गाऊं ,,,
अत्यंत मार्मिक है आपकी रचना. व्यथित मन की वेदना मुखरित है.
सार्थक प्रश्न
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