Tuesday, 12 May 2009

वो खड़ी थी चौक पर,,,


वो खड़ी थी चौक पर,,,
और चिल्लाये जा रही थी,,
थी महान वो भी कभी ,,,
ये गीत गाये जा रही थी,,,,
अर्धनग्न थी वो .,,,
कम वसन में ,,,
पर नग्नता छिपाए जा रही थी ,,,
गिर रहे अंध प्रक्रति के पत्थरों से,,,
जीर्ण वसन बचाए जा रही थी ,,,
मौन भीड़ थी खड़ी ,,,,
हाथ में प्रगति की तख्तिया लिए ,,
वो संरक्षण और अनुदान की ,,
जूठनेखाए जा रही थी ,,,,
बटोरती थी चंदो को ,,,
खुद के संबल के लिए ,,,
फिर बाँटती थी उसको ,,
निर्बल के बल के लिए ,,,
यही तो उसके जीवन की आस्था रही है ,,,
तभी तो वो सर्वोच्च सभ्यता रही है ,,,
आधुनिकता के तीर कर रहे थे,,,
उसके वदन को तार तार ,,,
पर वो मुस्कराए जा रही थी ,,,
हर घडी तीर की सहूलियत को,,
आगे आये जा रही थी ,,
मर रही थी पल पल वो ,,,
फिर भी बताये जा रही थी,,
कभी रही थी विश्व की सर्वोच्च संस्कृति ,,,
हूँ भारतीय सभ्यता ये गाये जा रही थी ,,,,,
वो खड़ी थी चौक पर,,,
और चिल्लाये जा रही थी,,

Thursday, 7 May 2009

मेरे टूल

रफ़्तार

Tuesday, 5 May 2009

फिर दो गालियाँ और ,,,




तुम मुझको और घसीटो ,,


रक्त रंजित कर दो मेरा मस्तक,,


इस तरह पैविस्त करो ,,,


साम्प्रदायिकता और जातिबाद की कीले,,


मेरे बदन में,,,,,


कि एक इंच जगह ना छूटे ,,


कुरेदो उन्हें इतना कि ,,,


फूटने लगे खून के फब्बारे ॥


फिर दो गालियाँ और ,,,


उछालो मेरी अस्मिता को ,,


करो मेरा चिर हरण ,,


क्षेत्रबाद के तीखे नाखूनों से ,,


तुम चाहो तो कर सकते हो ॥


मेरे और हजार टुकड़े ,,


बुंदेलखंड पूर्वांचल और ,,


हरित प्रदेश बना कर ,,


फिर भी दिल ना भरे तो ,,


नीलाम कर दो मेरी ,,,


अखंडता और सहिष्णुता को ,,


क्षेत्रिय व जातीय पार्टी बनाकर ,,


रोज मारो बेईमानी और ,,,


भ्रष्टाचार के तमाचे मेरे गाल पर ,,,


तब तक कि उसमे से भुखमरी ,,


और गरीबी का पीव ना बहने लगे ,,


भरदो स्विश बैंक के खाते॥


मेरे अन्त्रावस्त्र बेचकर ...


नोच खाओ मुझे और ,,


बेचो मेरा मांस नोच कर ,,,


बंद कर लो अपनी आंखे ,,


मेरे बलात्कार्य पर ,,,,


क्यों कि मैं तुम्हारी ,,


भारत माँ ही तो हूँ ,,,,






Monday, 27 April 2009

माँ तू अमित संगिनी मेरी,,,


तेरी उपमा किससे कर दू,,,

किससे दूँ तेरा सम्मान ,,,

मेरा जीवन भी तो तेरा है ,,,

फिर दूँ क्या तेरे को तेरे से मान ...

माँ तू अमित संगिनी मेरी ,,,

हर सांसो प्र्स्वासो में,तेरा भान ,,,,

जब कभी विकल व्याधि सी" माँ ,,

मुझको पीडा बहुत सताती है,,,

जब कभी तीव्र उलझनों से,,,

दुनिया मेरी रुक जाती है ,,,

हर घडी पास तुझको मैंने पाया है ,,,,

जब कड़ी धूप में आता बादल ,,,,

लगता तेरे आंचल का साया है ,,,

इन दूर दूर गामी देशो में रह कर ,,

इन विविध विविध वेशो में रह कर ,,,

माँ मैं कभी नहीं तुझको भुला हूँ ,,,,

इस जीवन के नितान्त अकेले पन में माँ ,,

तुने ही तो साथ निभाया है ,,,

सुख में तू किलकारी बन गूंजी ,,,

दुःख में बनी वेदना ,,,, माँ :::::::

मौन रहूँ तो उसमे भी तू ,,,,,

विचारो की अनवरत श्रंखला है,,,,

तेरा साया पल पल मैंने महसूस किया है ...

तेरी स्म्रतियों के झोको ने भी तो ,,,

नवजीवन ही दिया है ,,,

मैं बौना बन यही सोचता,,,

तेरी गरिमा किससे कर दूँ ...

किससे दूँ तुझको मैं मान ,,,

तेरी उपमा किससे कर दूँ ,,,

किससे दूँ तेरा सम्मान ,,,,,

माँ याद मुझे फिर आती है ,,


माँ तेरे हांथो की रोटी ,
याद मुझे फिर आती है ,,
इन यादो की छावो में,
आँख मेरी भर जाती है ,,,
माँ जब मैं छोटा था ,,,
ऊँगली पकड़ चलाती थी ,,,
नंगे नंगे ही भाई के संग ,,,
नल पे मुझे नहलाती थी ,,,
जब फूटा था मेरा अंगूठा ,,,
दो दिन तक छत पर न सोई ,,,
चूहे ने काटा था जब माँ मुझको ...
मेरे से ज्यादा तू थी रोई ,,,,
खूब याद है मुझको माँ,,
चौके में काली लकीरे करना ,,
जीने पर चढना फिर गिरना ,,,
पर कभी नहीं दुत्कारा तुमने ,,
कभी नहीं था मारा तुमने ,,,
अंधियारे से बचने का तब ,,,
मुझमे कहाँ पे बल था ,,,
झट छुप जाता आंचल में,,,
बस उसका ही तो संबल था ,,,
माँ खूब याद है ,,,
कंडो के ऊपर चौकडी भरना,,,
फिर उनके टुकड़े टुकड़े करना ,,,,
अपनी मेहनत का ये हाल देख कर,,,
गुस्से में वो तिरछी काली आँखे ,,,
याद मुझे फिर आती है ,,,,,
माँ तेरे हांथो की रोटी ,
याद मुझे फिर आती है ,,
इन यादो की छावो में,
आँख मेरी भर जाती है ,,,

आखिर वो मेरी माँ ही तो थी ,,,


वो पत्थर तोड़ती थी तो क्या हुआ ,,,

आखिर वो मेरी माँ ही तो थी ,,,

नहीं आती थी उसको मेरी भाषा,,,,

मौन में ही सही बात करती तो थी ,,,

उसके पास गहने नहीं थे ,,,

उसके पास कपडे भी नहीं थे ,,

पर वो था जो नारी को नारीत्व देता है ...

माँ को ममत्व देता है ,,,,

उसके पास थी लज्जा ,,,,

वो बिस्तर पर शायद कभी ही सोई हो ,,,

कुछ पाने की चाह में शायद कभी ही रोई हो ,,,

हर व्यथित दिन की सुरुआत वो मुस्करा कर करती थी,,

तल्लीन हो जाती थी अपने काम में ,,,

जेठ के भरे घाम में ,,,,

जिसके बदले उसे मिलते थे पैसे ॥

जिससे बमुश्किल खरीदती थी दो जून की रोटी ,,,

मेरे व मेरे भाईयो के लिए ,,,,

मुझे याद नहीं कभी भी की हो उसने कोई फरमाइश ।

क्या नहीं रही होगी उसके दिल में कोई ख्वाइश ....

आखिर वो नारी ही तो थी ,,,,

वो पत्थर तोड़ती थी तो क्या हुआ ,,,

आखिर वो मेरी माँ ही तो थी ,,,

रात की आड़ में मैंने उसे नहाते देखा था,,,

शर्मिंदगी में आंशू वहाते देखा था ,,,

हर आहट पर लपेट लेती थी चीथडो को ,

अपने वदन के चारो ओर,,,

चेष्टा थी खुल ना जाए पाँव का कोई पोर ,,,

सुन्दरता क्या है सुन्दर क्या ,,,

क्या वो यह नहीं जानती थी ,,,,

कपड़ो से उसका सम्बन्ध वमुश्किल शरीर ढकने का ही था,,,

उसे नहीं मालूम था शिक्षा और साक्षरता के बारे में ...

पर उसमे मानवीयता थी वो दयनीयता की देवी थी ,,,

क्या फर्क पड़ता है वो भूंख से तड़प तड़प कर मरी,,,

दर्द और अवसाद में डूव कर मरी,,,

इंसानियत का ढोंग करने वालों के लिए,,,

वो एक भिखारिन ही तो थी,,,,

वो पत्थर तोड़ती थी तो क्या हुआ ,,,

आखिर वो मेरी माँ ही तो थी ,,,

क्यों की हमने प्रगति की है,,


हमें नहीं आती है दया किसी बुजुर्ग की बेबसी पे ,,,

जब बो बस में खडे हो कर हाफता है ,,,,

क्यों की हमने प्रगति की है ,,,,

नहीं होती है संवेदना किसी जीव के मरने पर,,,

नहीं होती है वेदना किसी घर के जलने पर ,,,

नहीं टपकते है आंशू घाव देख कर,,,

नहीं झुकता है सर पाँव देख कर ,,,

क्यों की हमने प्रगति की है ,,,.

नलों से होता है अब पानी की जगह केमिकल का रिसाव,,,

खाने में होता है एंटी आक्सीडेंट का छिडकाव,,,,

साँस co2 व co से भरपूर है ....

आक्सीजन पहुँच से दूर है ,,,

क्यों की हमने प्रगति की है ,,,,,,

अब पकडा दिया है कटोरा हम ने किशान के हांथो में,,,

अब उत्पन्न होगा अन्न kpo, bpo की बातो में ,,,

बचपन सड़क पर पोस्टर व मोमबत्तीया बेचता है ,,,

फिर जवानी से मौत तक रिक्सा खेचता है ,,,,

क्यों की हमने प्रगति की है ,,,,

अब होती है बुजुर्गो को ब्रद्धा आश्रम की जरुरत ,,,,

बेडरूम में लगती है मल्लिका शेरावत की मूरत ,,,

हम कुत्ते और बिल्लियो की पार्टिया मानते है ,,,,

वहा पैरेंट्स अधकचरा दलिया खाते है ,,,,

क्यों की हमने प्रगति की है ,,,,

हम ने हम छीन लेते है मरने का अधिकार ,,,,

जीवन रक्षक मशीनों पर रख कर ,,,,

जिदगी उबाऊ तो कर ही ली है ,,,,

मौत भी लेते है बद से बदतर ,,,,,

क्यों नए कपड़ो में शव रख कर उसे चिडाते है ,,,

फिर इलेक्ट्रानिक ओवन में रख कर शव पकाते है न की जलाते है ,,,

क्यों की हमने प्रगति की है ,,,,

जलता भारत


कल कुछ अजब घटा मेरे मन में ,,,,
जब नहीं मिला सुकू कंही पर जा पंहुचा मुर्दा घर मैं ,,,
घूमा पूरा कब्रिस्तान और कब्रों पर लेता मैं,,,
घूमा घामा और बैठ गया ,,,,
एक चौडी पटिया पाकर मैं,,,,
तभी हुआ अट्टहास कहीं से कोई कब्रों से उठ आया ,॥
आँखे फटी हुई थी मेरी वो तेजी से गुर्राया ,,,,,
अट्टहास कर बोला मैं चंगेजी बाबर हूँ ,,,,,
भारत का सर माया ,,,,,
रे नाचीज क्यों सोते से तूने मुझे जगाया,,,
फिर जब मैंने उसको सारा हाल बताया ,,,,
बोला मैं भी देखूं इतना परिवर्तन भारत में कैसे आया ,,,
जिद कर के चला साथ वो बिछडे भारत का सर माया,,,
जब घूमा सारा भारत बो घबराया ,,
शरमाया,, चकराया ,,पकडा माथा और बड़बडाया ,,,,,
अब और नहीं देखना अपने भारत का अपमान अहो ,,,
क्या यही प्रगति है इस जलते भारत की दोस्त कहो ,,,
नारी की अस्मिता से खेले क्या ये वही धीर है,,,
नामर्दों सा करे भांगडा क्या ये वही वीर है ,,,,
इज्जत की खातिर लड़ने बाले अब चिल्लम चिल्ला करते है ,,,,
आरी लाशो से रण को भरने बाले अब लाशो का सौदा करते है ,,,
सडको पर अधनंगी घूमे क्या ये वही वीरांगना नारी है ,,,
जिसकी शौर्य गाथाओं से सिंहो के दिल दहला करते थे ,,,,
जिसकी चरणों की राज को वीरो के झुंड उमड़ते थे ,,,,
जिसकी भ्रकुटी की कोनो से अंगारे गिरते थे ,,,
आज घुमती वो चिथरो में ,,,,
क्यों खोया अपना स्वाभिमान कहो ,,,,
अब और नहीं देखना पाने भारत का अपमान अहो ,,,
क्या यही प्रगति है इस जलते भारत की दोस्त कहो ,,, ,,,,,
तीखे अंगारे थे उसकी आँखों में बाबर रोता जाता था ,,,,
अपनी आँखों के पानी से ये भारत धोता जाता था ,,,,
बोला मेरे भारत को आज बचा लो प्यारे ,,,,
बंद करो ये बेसुरे राग झूठी प्रगति के अभिनन्दन में,,,
कल कुछ अजब घटा मेरे मन में ,,,,

सभ्यता की पहिचान \\


आज हमें सभ्यता की पहिचान हो गयी है ,,,

क्यों की हमारी अपनी पहिचान खो गयी है ,,,

हम सीख गए है रहने का सलीका ,,,,

खाने पीने का तरीका ,,,,,

आ गयी है हम को उत्तम संस्क्रती ,,,

की है हमने लम्बी प्रगति ,,,,

हम अपना पेट कितनी सफाई से भरते है ,,,,

तुम्हारा भोजन कितनी वेवफाई से हड़पते है,,,

क्यों की हमारी मानवीयता सो गयी है ,,

आज हमें सभ्यता की पहिचान हो गयी है ,,,

क्यों की हमारी अपनी पहिचान खो गयी है ,,, .....

नहीं आती है हम को दया ,,,

,नहीं आती है हम को हया ....

जब भूंख से कोई रोता है ,,,,,

जब कोई बचपन खोता है ,,,,,

कान बंद कर के निकल जाते है हम ...

क्यों की जिन्दगी आसान हो गयी है,,

आज हमें सभ्यता की पहिचान हो गयी है ,,,

क्यों की हमारी अपनी पहिचान खो गयी है ,,, ....

सीख लिया है हम ने हर द्वंद में लड़ना ,,,

सीख लिया है हम ने आत्म प्रगति में बढ़ना ,,,,

तुम को दवा कर ही बड़े तो क्या ,,,,

तुम को गिरा कर ही बड़े तो क्या,,,

आज हमारी शान तो हो गयी है ,,,,

क्यों की हमारी अपनी पहिचान खो गयी है ,,,.....

हर वक्त वे वक्त हम अपने आप को देते है गाली ,,,

लगती है अपनी पहिचान हमें काली ,,,

खुद की खुदी हमें वेदर्द लगती है ,,,,,

अपनी जिन्दगी हमें सर्द लगती है ,,,,,

क्यों की हम में ये वक्त रम गया है,,,

जिन्दगी हमारी वियावान हो गयी है ,,,,

आज हमें सभ्यता की पहिचान हो गयी है ,,,

क्यों की हमारी अपनी पहिचान खो गयी है ,,,

महिमा ,,,,


कल रात कर्म से मेरी सीधी भेट हो गयी ,,,,

लाख बढाये फांसले , पर चपेट हो गयी ,,,

वो मस्ती में बड़बडाये जा रहा था,,,

मैं भोझ से दवा ताड़पडाये जा रहा था ,,,

बोला समंदर की गहराई में उच्छ्लता हूँ मैं ,,,

मुश्किलों में बढती प्रबलता हूँ मैं,,,,

हर दीर्घ साँस के लिए रुकी सोच हूँ ,,,

विशिस्ट हूँ और जीवन की लोच हूँ ,,,,

मौसम् के रंग में रंगीन अहसास हूँ ,,,,

हर दिल में प्रस्फुटित विस्वाश हूँ,,,,

मैं राग हूँ वैराग हूँ लालसा की देन हूँ ,,,,

स्वांस हूँ प्र्स्वांस हूँ विरक्त ब्रेन हूँ ,,,,

हूँ सुप्त कुमुदनी सा प्रस्फुटित फेन हूँ ,,,

कराल हूँ मैं ,,,

मैं आग की देन हूँ....

कालिमा में लालिमा का मैं निखार हूँ ,,,

हूँ क्रोध की जलन ,,,,,मैं प्यार हूँ ......

क्षोभ हूँ ,, लोभ हूँ ,,हूँ मोह की घनिष्टता ...

रत हूँ विरत हूँ प्रेम की ध्रष्टता ,,,,

हार में भी जीत का संवाद हूँ ,,,,

यूद्ध में मैं शंख नाद हूँ ,,,,,

इस तमिष जगत में मैं ही धीर हूँ,,,

इस कायर परत में मैं ही वीर हूँ ,,,,

हर स्वांस मेरी यूद्ध घोष है ,,,,,

हर लव्ज में मेरे खूब रोष है ,,,

जोश हूँ रोष हूँ और हौशला भी हूँ ,,,,

कृत्य हूँ कर्ताहूँ और और फैशला भी हूँ ,,,

इस अंधड़ की आग में मैं फिर रहा हूँ घूमता ...

इस काँटों के बाग़ में मैं फिर रहा हूँ ढूडता ,,,,

महिमा हमारी जो खो गयी ,,,,,

कल रात कर्म से मेरी सीधी भेट हो गयी ,,,,