
वो खड़ी थी चौक पर,,,
और चिल्लाये जा रही थी,,
थी महान वो भी कभी ,,,
ये गीत गाये जा रही थी,,,,
अर्धनग्न थी वो .,,,
कम वसन में ,,,
पर नग्नता छिपाए जा रही थी ,,,
गिर रहे अंध प्रक्रति के पत्थरों से,,,
जीर्ण वसन बचाए जा रही थी ,,,
मौन भीड़ थी खड़ी ,,,,
हाथ में प्रगति की तख्तिया लिए ,,
वो संरक्षण और अनुदान की ,,
जूठनेखाए जा रही थी ,,,,
बटोरती थी चंदो को ,,,
खुद के संबल के लिए ,,,
फिर बाँटती थी उसको ,,
निर्बल के बल के लिए ,,,
यही तो उसके जीवन की आस्था रही है ,,,
तभी तो वो सर्वोच्च सभ्यता रही है ,,,
आधुनिकता के तीर कर रहे थे,,,
उसके वदन को तार तार ,,,
पर वो मुस्कराए जा रही थी ,,,
हर घडी तीर की सहूलियत को,,
आगे आये जा रही थी ,,
मर रही थी पल पल वो ,,,
फिर भी बताये जा रही थी,,
कभी रही थी विश्व की सर्वोच्च संस्कृति ,,,
हूँ भारतीय सभ्यता ये गाये जा रही थी ,,,,,
वो खड़ी थी चौक पर,,,
और चिल्लाये जा रही थी,,