वो पत्थर तोड़ती थी तो क्या हुआ ,,,
आखिर वो मेरी माँ ही तो थी ,,,
नहीं आती थी उसको मेरी भाषा,,,,
मौन में ही सही बात करती तो थी ,,,
उसके पास गहने नहीं थे ,,,
उसके पास कपडे भी नहीं थे ,,
पर वो था जो नारी को नारीत्व देता है ...
माँ को ममत्व देता है ,,,,
उसके पास थी लज्जा ,,,,
वो बिस्तर पर शायद कभी ही सोई हो ,,,
कुछ पाने की चाह में शायद कभी ही रोई हो ,,,
हर व्यथित दिन की सुरुआत वो मुस्करा कर करती थी,,
तल्लीन हो जाती थी अपने काम में ,,,
जेठ के भरे घाम में ,,,,
जिसके बदले उसे मिलते थे पैसे ॥
जिससे बमुश्किल खरीदती थी दो जून की रोटी ,,,
मेरे व मेरे भाईयो के लिए ,,,,
मुझे याद नहीं कभी भी की हो उसने कोई फरमाइश ।
क्या नहीं रही होगी उसके दिल में कोई ख्वाइश ....
आखिर वो नारी ही तो थी ,,,,
वो पत्थर तोड़ती थी तो क्या हुआ ,,,
आखिर वो मेरी माँ ही तो थी ,,,
रात की आड़ में मैंने उसे नहाते देखा था,,,
शर्मिंदगी में आंशू वहाते देखा था ,,,
हर आहट पर लपेट लेती थी चीथडो को ,
अपने वदन के चारो ओर,,,
चेष्टा थी खुल ना जाए पाँव का कोई पोर ,,,
सुन्दरता क्या है सुन्दर क्या ,,,
क्या वो यह नहीं जानती थी ,,,,
कपड़ो से उसका सम्बन्ध वमुश्किल शरीर ढकने का ही था,,,
उसे नहीं मालूम था शिक्षा और साक्षरता के बारे में ...
पर उसमे मानवीयता थी वो दयनीयता की देवी थी ,,,
क्या फर्क पड़ता है वो भूंख से तड़प तड़प कर मरी,,,
दर्द और अवसाद में डूव कर मरी,,,
इंसानियत का ढोंग करने वालों के लिए,,,
वो एक भिखारिन ही तो थी,,,,
वो पत्थर तोड़ती थी तो क्या हुआ ,,,
आखिर वो मेरी माँ ही तो थी ,,,
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