इन लावारिश लाशो पे चढ़ के ,,,
कहाँ जा रहे है हम और आप ,,
ये भीवत्स तो नहीं पर सडन मार रही है ,,,
जब व्याकुलता बढती है ,, तो ,,,
आँखे बंद कर लेते हो ,, दोस्त ...
ये तुमरे अन्तश की गहराईयों में उतर रही है ,,,
अपने चरित्र की बलि दे कर तुम,,,,
क्यों इन्हें ढो रहे हो,,,,,
यज वेदियों को रक्त से धो रहे हो,,
देकर दीर्घकालिक आकन्क्षाओ की बलि,,,
चारित्रिक हास कर मनोरंजन कर रहे हो ....
क्या तुम्हें नहीं सुनाई देती ,,,
स्तव्ध अंतरात्मा की आवाज ,,,,
कितनी उच्छ्लता से नपुंसकता की ओर बढ रहे हो ....
बड़ी वेशर्मी से उजागरण,,,,,
आदर्शनियता का ,,,,,,,,,
वेदर्दी से अनाबरण ,,,,,
दयनीयता का ,,,,
मत भूलो तुम छोड़ रहे हो अलोकप्रिय छाप,,,,
इन लावारिश लाशो पे चढ़ के ,,,
कहाँ जा रहे है हम और आप ,, ............
मौन हो के सुन रहे हो गालिया जमीर पे ...
क्यों कर रहे हो शक आंचल से ढके ममत्व पे ,,
क्यों कर रहे हो वेपर्दा पर्दनीय को ,,,,
क्यों दिख रही है मुझे तुममे वहशियत ,,,
आज तुम्हारी आँखों में वो प्याश नहीं ,,,,
वो प्याश नजर आ रही है ,,,,,,,
मित्र जाग जाओ ,,,,
इस दीर्घ कालिक निद्रा से ,,,
पहचान लो अपने पतन की गहराई ,,,
दूर हो जाओ इन दुर्भिछुओ के दल से ,,,
इन नर पिशाचो के अस्तबल से ,,,,
मत करो उनका बरण,,,,
जिन्हें शादियों से रखा है ढाप,,,,
इन लावारिश लाशो पे चढ़ के ,,
कहाँ जा रहे है हम और आप ,,.......
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