कर रही खुद को समर्पित बूंद जो गिरती मेघो से ,,,,
कर रही हर साँस अर्पित बूंद जो गिरती मेंघों से ,,,
कर रही हर साँस अर्पित बूंद जो गिरती मेंघों से ,,,
हिम के सागर में वो खुद को बुलंद कर रही थी ,,,,
हौसलों की टोकरी में चाहते भर रही थी ,,,,,,
स्वछंदता में हो मगन ,,,,,
स्वछन्द ही विचर रही थी ,,,,,
कंठ से झर रहा था राग ,,,,
रागिनी विखर रही थी ,,,,
कर रही ह्रदय को कम्पित ,,,,
बूंद जो गिरती गमो से ,,,
कर रही खुद को समर्पित बूंद जो गिरती मेघो से ,,,,,
छोड़ कर दामन सखी का,,,,
वो चली खुद को मिटने,,,,
देख कर रुखी जमी को,,,,,,
वो चली उसको हटाने ,,,,,
स्वलोभ का उसने दमन कर,,,,
सत्य को अपना लिया है ,,,,,
खोल कर अज्ञान आबरण ,,,
खुद को पचा लिया है ,,,,,
कर रही मन को ससंकित बूंद जो गिरती लवो से ,,,,
कर रही खुद को समर्पित बूंद जो गिरती मेघो से ,,,
पर दरिद्र उसका छोड़ता क्यूँ दामन नहीं ,,,,
आकर गिरी कीच में आश न पाकर कहीं ,,,
सब स्वप्न उसके धुल रहे थे हर घडी दर घडी ,,,,
आँख नम थी मन भरा था सोचती थी वो पड़ी ,,,,
मौन मानव श्रंखलाये उस पर हँश रही थी ,,,,
फव्तिया भद्दी सी उस पर कस रही थी ,,,,,
अब सांसो का हर घडी उसको समर्पण था ,,,,
पर हित की लालसा में जीवन ही अर्पण था ,,,,
सब स्वार्थ में उसको मिटाने चल रहे थे ,,,,,,
क्यों सोचते नहीं वो बूंद भी रही थी ,,,,,
कर रही थी कुछ वो अंकित बूंद जो गिरती मगों पे ,,,,,
कर रही खुद को समर्पित बूंद जो गिरती मेघो से ,,,,,
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