Saturday 30 May 2009

अब स्याह धुआ सा उठता है ,


अब स्याह धुआ सा उठता है ,

वेदी की पावन आगो से,,,

अब रुदन सुनाई देता है ,,

फागुन के मीठे फागो से,,

अब गीता की अद्भुत वाणी ,,

जीवन में उल्लाश नहीं भरती,,

अब मंदिर की टन टन घंटी ,,

जीवन में आश नहीं भरती ,,

हर ओर कीट पतंगों का ,,

अब शोर सुनाई देता है ,,,,

हर गली मोड़ पर भिखमंगो का ,,

अब जोर दिखाई देता है ,,

आमो के सुन्दर पेडो पर ,,,

अब कोयल गान नहीं करती,,

गंगा के पावन घाटो पर॥

अब कोई माँ दान नहीं करती ,,

लहू पुता सा क्षितिज और ,,

,अब भीवत्स धरा दिखती है ,,

मानो अंगारों की वर्षा हो ,,,

अब यैसी सावन की बूंद वर्षती है ,,

अब धरती की सुन्दरता ,,

मन में संज्ञान नहीं धरती,,,

बूंदों की लय के ऊपर ,,,

अब कोई गोरी गान नहीं करती ,,

अब तीव्र रोष सा उठता है ,,

जन जन की हुंकारों में ,,,

प्रतिशोध दिखाई देता है ,,,

अब बहती नदियों की धारो में,,

अब चीत्कार सुनाई देता है ,,,

भारत के अन्तरंग भागो से ,,,

अब स्याह धुआ सा उठता है ,

वेदी की पावन आगो से,,,

Tuesday 26 May 2009

आज देश को फिर वसन चाहिए \




आज देश को फिर वसन चाहिए \


खून से सना ही सही , तन चाहिए \


जाति धर्म की आग लग रही ,


कोने कोने में,,


देश वैर वैमनस्यता जलाये जारही ।


इस आग के समन का कुछ जतन चाहिए\


आज देश को फिर वसन चाहिए \


खून से सना ही सही , तन चाहिए \


उड़ रही है खून मॉस की आंधिया\


अब और भी निर्वस्त्र हो रही है वेटियाँ \


भूंख और प्रतारणा लिए किसान जी रहा है \


बूंद की आश में बूंद बूंद पी रहा है \


इस मौत की घडी में कुछ हसन चाहिए \


आज देश को फिर वसन चाहिए \


खून से सना ही सही , तन चाहिए \


विकाश और विलासता की लम्बी दौड़ में \


प्रगति और प्रगति की तीखी होड़ में \


जीवन की सहज गति को हमने भुला दिया \


रास्ट्र की प्रगति को हमने भुला दिया \


आज और नहीं इसपे कुछ मनन चाहिए \


आज देश को फिर वसन चाहिए \


खून से सना ही सही , तन चाहिए \


पुकार उठ रही हिम की कन्द्राओ से \


कुछ लव्ज छन के आ रहे प्रसान्त की धाराओ से \


खून से सनी माटियाँ पुकारती है \


देश हित में लड़ी घटिया पुकारती है \


फिर से नेता सुभाष ही करे या गाँधी ही करे \


मुझको तो इन रास्ट्र द्रोही ताकतों का दमन चाहिए \


आज देश को फिर वसन चाहिए \


खून से सना ही सही , तन चाहिए \


Tuesday 12 May 2009

वो खड़ी थी चौक पर,,,


वो खड़ी थी चौक पर,,,
और चिल्लाये जा रही थी,,
थी महान वो भी कभी ,,,
ये गीत गाये जा रही थी,,,,
अर्धनग्न थी वो .,,,
कम वसन में ,,,
पर नग्नता छिपाए जा रही थी ,,,
गिर रहे अंध प्रक्रति के पत्थरों से,,,
जीर्ण वसन बचाए जा रही थी ,,,
मौन भीड़ थी खड़ी ,,,,
हाथ में प्रगति की तख्तिया लिए ,,
वो संरक्षण और अनुदान की ,,
जूठनेखाए जा रही थी ,,,,
बटोरती थी चंदो को ,,,
खुद के संबल के लिए ,,,
फिर बाँटती थी उसको ,,
निर्बल के बल के लिए ,,,
यही तो उसके जीवन की आस्था रही है ,,,
तभी तो वो सर्वोच्च सभ्यता रही है ,,,
आधुनिकता के तीर कर रहे थे,,,
उसके वदन को तार तार ,,,
पर वो मुस्कराए जा रही थी ,,,
हर घडी तीर की सहूलियत को,,
आगे आये जा रही थी ,,
मर रही थी पल पल वो ,,,
फिर भी बताये जा रही थी,,
कभी रही थी विश्व की सर्वोच्च संस्कृति ,,,
हूँ भारतीय सभ्यता ये गाये जा रही थी ,,,,,
वो खड़ी थी चौक पर,,,
और चिल्लाये जा रही थी,,

Thursday 7 May 2009

मेरे टूल

रफ़्तार

Tuesday 5 May 2009

फिर दो गालियाँ और ,,,




तुम मुझको और घसीटो ,,


रक्त रंजित कर दो मेरा मस्तक,,


इस तरह पैविस्त करो ,,,


साम्प्रदायिकता और जातिबाद की कीले,,


मेरे बदन में,,,,,


कि एक इंच जगह ना छूटे ,,


कुरेदो उन्हें इतना कि ,,,


फूटने लगे खून के फब्बारे ॥


फिर दो गालियाँ और ,,,


उछालो मेरी अस्मिता को ,,


करो मेरा चिर हरण ,,


क्षेत्रबाद के तीखे नाखूनों से ,,


तुम चाहो तो कर सकते हो ॥


मेरे और हजार टुकड़े ,,


बुंदेलखंड पूर्वांचल और ,,


हरित प्रदेश बना कर ,,


फिर भी दिल ना भरे तो ,,


नीलाम कर दो मेरी ,,,


अखंडता और सहिष्णुता को ,,


क्षेत्रिय व जातीय पार्टी बनाकर ,,


रोज मारो बेईमानी और ,,,


भ्रष्टाचार के तमाचे मेरे गाल पर ,,,


तब तक कि उसमे से भुखमरी ,,


और गरीबी का पीव ना बहने लगे ,,


भरदो स्विश बैंक के खाते॥


मेरे अन्त्रावस्त्र बेचकर ...


नोच खाओ मुझे और ,,


बेचो मेरा मांस नोच कर ,,,


बंद कर लो अपनी आंखे ,,


मेरे बलात्कार्य पर ,,,,


क्यों कि मैं तुम्हारी ,,


भारत माँ ही तो हूँ ,,,,