Monday 27 April 2009

माँ तू अमित संगिनी मेरी,,,


तेरी उपमा किससे कर दू,,,

किससे दूँ तेरा सम्मान ,,,

मेरा जीवन भी तो तेरा है ,,,

फिर दूँ क्या तेरे को तेरे से मान ...

माँ तू अमित संगिनी मेरी ,,,

हर सांसो प्र्स्वासो में,तेरा भान ,,,,

जब कभी विकल व्याधि सी" माँ ,,

मुझको पीडा बहुत सताती है,,,

जब कभी तीव्र उलझनों से,,,

दुनिया मेरी रुक जाती है ,,,

हर घडी पास तुझको मैंने पाया है ,,,,

जब कड़ी धूप में आता बादल ,,,,

लगता तेरे आंचल का साया है ,,,

इन दूर दूर गामी देशो में रह कर ,,

इन विविध विविध वेशो में रह कर ,,,

माँ मैं कभी नहीं तुझको भुला हूँ ,,,,

इस जीवन के नितान्त अकेले पन में माँ ,,

तुने ही तो साथ निभाया है ,,,

सुख में तू किलकारी बन गूंजी ,,,

दुःख में बनी वेदना ,,,, माँ :::::::

मौन रहूँ तो उसमे भी तू ,,,,,

विचारो की अनवरत श्रंखला है,,,,

तेरा साया पल पल मैंने महसूस किया है ...

तेरी स्म्रतियों के झोको ने भी तो ,,,

नवजीवन ही दिया है ,,,

मैं बौना बन यही सोचता,,,

तेरी गरिमा किससे कर दूँ ...

किससे दूँ तुझको मैं मान ,,,

तेरी उपमा किससे कर दूँ ,,,

किससे दूँ तेरा सम्मान ,,,,,

माँ याद मुझे फिर आती है ,,


माँ तेरे हांथो की रोटी ,
याद मुझे फिर आती है ,,
इन यादो की छावो में,
आँख मेरी भर जाती है ,,,
माँ जब मैं छोटा था ,,,
ऊँगली पकड़ चलाती थी ,,,
नंगे नंगे ही भाई के संग ,,,
नल पे मुझे नहलाती थी ,,,
जब फूटा था मेरा अंगूठा ,,,
दो दिन तक छत पर न सोई ,,,
चूहे ने काटा था जब माँ मुझको ...
मेरे से ज्यादा तू थी रोई ,,,,
खूब याद है मुझको माँ,,
चौके में काली लकीरे करना ,,
जीने पर चढना फिर गिरना ,,,
पर कभी नहीं दुत्कारा तुमने ,,
कभी नहीं था मारा तुमने ,,,
अंधियारे से बचने का तब ,,,
मुझमे कहाँ पे बल था ,,,
झट छुप जाता आंचल में,,,
बस उसका ही तो संबल था ,,,
माँ खूब याद है ,,,
कंडो के ऊपर चौकडी भरना,,,
फिर उनके टुकड़े टुकड़े करना ,,,,
अपनी मेहनत का ये हाल देख कर,,,
गुस्से में वो तिरछी काली आँखे ,,,
याद मुझे फिर आती है ,,,,,
माँ तेरे हांथो की रोटी ,
याद मुझे फिर आती है ,,
इन यादो की छावो में,
आँख मेरी भर जाती है ,,,

आखिर वो मेरी माँ ही तो थी ,,,


वो पत्थर तोड़ती थी तो क्या हुआ ,,,

आखिर वो मेरी माँ ही तो थी ,,,

नहीं आती थी उसको मेरी भाषा,,,,

मौन में ही सही बात करती तो थी ,,,

उसके पास गहने नहीं थे ,,,

उसके पास कपडे भी नहीं थे ,,

पर वो था जो नारी को नारीत्व देता है ...

माँ को ममत्व देता है ,,,,

उसके पास थी लज्जा ,,,,

वो बिस्तर पर शायद कभी ही सोई हो ,,,

कुछ पाने की चाह में शायद कभी ही रोई हो ,,,

हर व्यथित दिन की सुरुआत वो मुस्करा कर करती थी,,

तल्लीन हो जाती थी अपने काम में ,,,

जेठ के भरे घाम में ,,,,

जिसके बदले उसे मिलते थे पैसे ॥

जिससे बमुश्किल खरीदती थी दो जून की रोटी ,,,

मेरे व मेरे भाईयो के लिए ,,,,

मुझे याद नहीं कभी भी की हो उसने कोई फरमाइश ।

क्या नहीं रही होगी उसके दिल में कोई ख्वाइश ....

आखिर वो नारी ही तो थी ,,,,

वो पत्थर तोड़ती थी तो क्या हुआ ,,,

आखिर वो मेरी माँ ही तो थी ,,,

रात की आड़ में मैंने उसे नहाते देखा था,,,

शर्मिंदगी में आंशू वहाते देखा था ,,,

हर आहट पर लपेट लेती थी चीथडो को ,

अपने वदन के चारो ओर,,,

चेष्टा थी खुल ना जाए पाँव का कोई पोर ,,,

सुन्दरता क्या है सुन्दर क्या ,,,

क्या वो यह नहीं जानती थी ,,,,

कपड़ो से उसका सम्बन्ध वमुश्किल शरीर ढकने का ही था,,,

उसे नहीं मालूम था शिक्षा और साक्षरता के बारे में ...

पर उसमे मानवीयता थी वो दयनीयता की देवी थी ,,,

क्या फर्क पड़ता है वो भूंख से तड़प तड़प कर मरी,,,

दर्द और अवसाद में डूव कर मरी,,,

इंसानियत का ढोंग करने वालों के लिए,,,

वो एक भिखारिन ही तो थी,,,,

वो पत्थर तोड़ती थी तो क्या हुआ ,,,

आखिर वो मेरी माँ ही तो थी ,,,

क्यों की हमने प्रगति की है,,


हमें नहीं आती है दया किसी बुजुर्ग की बेबसी पे ,,,

जब बो बस में खडे हो कर हाफता है ,,,,

क्यों की हमने प्रगति की है ,,,,

नहीं होती है संवेदना किसी जीव के मरने पर,,,

नहीं होती है वेदना किसी घर के जलने पर ,,,

नहीं टपकते है आंशू घाव देख कर,,,

नहीं झुकता है सर पाँव देख कर ,,,

क्यों की हमने प्रगति की है ,,,.

नलों से होता है अब पानी की जगह केमिकल का रिसाव,,,

खाने में होता है एंटी आक्सीडेंट का छिडकाव,,,,

साँस co2 व co से भरपूर है ....

आक्सीजन पहुँच से दूर है ,,,

क्यों की हमने प्रगति की है ,,,,,,

अब पकडा दिया है कटोरा हम ने किशान के हांथो में,,,

अब उत्पन्न होगा अन्न kpo, bpo की बातो में ,,,

बचपन सड़क पर पोस्टर व मोमबत्तीया बेचता है ,,,

फिर जवानी से मौत तक रिक्सा खेचता है ,,,,

क्यों की हमने प्रगति की है ,,,,

अब होती है बुजुर्गो को ब्रद्धा आश्रम की जरुरत ,,,,

बेडरूम में लगती है मल्लिका शेरावत की मूरत ,,,

हम कुत्ते और बिल्लियो की पार्टिया मानते है ,,,,

वहा पैरेंट्स अधकचरा दलिया खाते है ,,,,

क्यों की हमने प्रगति की है ,,,,

हम ने हम छीन लेते है मरने का अधिकार ,,,,

जीवन रक्षक मशीनों पर रख कर ,,,,

जिदगी उबाऊ तो कर ही ली है ,,,,

मौत भी लेते है बद से बदतर ,,,,,

क्यों नए कपड़ो में शव रख कर उसे चिडाते है ,,,

फिर इलेक्ट्रानिक ओवन में रख कर शव पकाते है न की जलाते है ,,,

क्यों की हमने प्रगति की है ,,,,

जलता भारत


कल कुछ अजब घटा मेरे मन में ,,,,
जब नहीं मिला सुकू कंही पर जा पंहुचा मुर्दा घर मैं ,,,
घूमा पूरा कब्रिस्तान और कब्रों पर लेता मैं,,,
घूमा घामा और बैठ गया ,,,,
एक चौडी पटिया पाकर मैं,,,,
तभी हुआ अट्टहास कहीं से कोई कब्रों से उठ आया ,॥
आँखे फटी हुई थी मेरी वो तेजी से गुर्राया ,,,,,
अट्टहास कर बोला मैं चंगेजी बाबर हूँ ,,,,,
भारत का सर माया ,,,,,
रे नाचीज क्यों सोते से तूने मुझे जगाया,,,
फिर जब मैंने उसको सारा हाल बताया ,,,,
बोला मैं भी देखूं इतना परिवर्तन भारत में कैसे आया ,,,
जिद कर के चला साथ वो बिछडे भारत का सर माया,,,
जब घूमा सारा भारत बो घबराया ,,
शरमाया,, चकराया ,,पकडा माथा और बड़बडाया ,,,,,
अब और नहीं देखना अपने भारत का अपमान अहो ,,,
क्या यही प्रगति है इस जलते भारत की दोस्त कहो ,,,
नारी की अस्मिता से खेले क्या ये वही धीर है,,,
नामर्दों सा करे भांगडा क्या ये वही वीर है ,,,,
इज्जत की खातिर लड़ने बाले अब चिल्लम चिल्ला करते है ,,,,
आरी लाशो से रण को भरने बाले अब लाशो का सौदा करते है ,,,
सडको पर अधनंगी घूमे क्या ये वही वीरांगना नारी है ,,,
जिसकी शौर्य गाथाओं से सिंहो के दिल दहला करते थे ,,,,
जिसकी चरणों की राज को वीरो के झुंड उमड़ते थे ,,,,
जिसकी भ्रकुटी की कोनो से अंगारे गिरते थे ,,,
आज घुमती वो चिथरो में ,,,,
क्यों खोया अपना स्वाभिमान कहो ,,,,
अब और नहीं देखना पाने भारत का अपमान अहो ,,,
क्या यही प्रगति है इस जलते भारत की दोस्त कहो ,,, ,,,,,
तीखे अंगारे थे उसकी आँखों में बाबर रोता जाता था ,,,,
अपनी आँखों के पानी से ये भारत धोता जाता था ,,,,
बोला मेरे भारत को आज बचा लो प्यारे ,,,,
बंद करो ये बेसुरे राग झूठी प्रगति के अभिनन्दन में,,,
कल कुछ अजब घटा मेरे मन में ,,,,

सभ्यता की पहिचान \\


आज हमें सभ्यता की पहिचान हो गयी है ,,,

क्यों की हमारी अपनी पहिचान खो गयी है ,,,

हम सीख गए है रहने का सलीका ,,,,

खाने पीने का तरीका ,,,,,

आ गयी है हम को उत्तम संस्क्रती ,,,

की है हमने लम्बी प्रगति ,,,,

हम अपना पेट कितनी सफाई से भरते है ,,,,

तुम्हारा भोजन कितनी वेवफाई से हड़पते है,,,

क्यों की हमारी मानवीयता सो गयी है ,,

आज हमें सभ्यता की पहिचान हो गयी है ,,,

क्यों की हमारी अपनी पहिचान खो गयी है ,,, .....

नहीं आती है हम को दया ,,,

,नहीं आती है हम को हया ....

जब भूंख से कोई रोता है ,,,,,

जब कोई बचपन खोता है ,,,,,

कान बंद कर के निकल जाते है हम ...

क्यों की जिन्दगी आसान हो गयी है,,

आज हमें सभ्यता की पहिचान हो गयी है ,,,

क्यों की हमारी अपनी पहिचान खो गयी है ,,, ....

सीख लिया है हम ने हर द्वंद में लड़ना ,,,

सीख लिया है हम ने आत्म प्रगति में बढ़ना ,,,,

तुम को दवा कर ही बड़े तो क्या ,,,,

तुम को गिरा कर ही बड़े तो क्या,,,

आज हमारी शान तो हो गयी है ,,,,

क्यों की हमारी अपनी पहिचान खो गयी है ,,,.....

हर वक्त वे वक्त हम अपने आप को देते है गाली ,,,

लगती है अपनी पहिचान हमें काली ,,,

खुद की खुदी हमें वेदर्द लगती है ,,,,,

अपनी जिन्दगी हमें सर्द लगती है ,,,,,

क्यों की हम में ये वक्त रम गया है,,,

जिन्दगी हमारी वियावान हो गयी है ,,,,

आज हमें सभ्यता की पहिचान हो गयी है ,,,

क्यों की हमारी अपनी पहिचान खो गयी है ,,,

महिमा ,,,,


कल रात कर्म से मेरी सीधी भेट हो गयी ,,,,

लाख बढाये फांसले , पर चपेट हो गयी ,,,

वो मस्ती में बड़बडाये जा रहा था,,,

मैं भोझ से दवा ताड़पडाये जा रहा था ,,,

बोला समंदर की गहराई में उच्छ्लता हूँ मैं ,,,

मुश्किलों में बढती प्रबलता हूँ मैं,,,,

हर दीर्घ साँस के लिए रुकी सोच हूँ ,,,

विशिस्ट हूँ और जीवन की लोच हूँ ,,,,

मौसम् के रंग में रंगीन अहसास हूँ ,,,,

हर दिल में प्रस्फुटित विस्वाश हूँ,,,,

मैं राग हूँ वैराग हूँ लालसा की देन हूँ ,,,,

स्वांस हूँ प्र्स्वांस हूँ विरक्त ब्रेन हूँ ,,,,

हूँ सुप्त कुमुदनी सा प्रस्फुटित फेन हूँ ,,,

कराल हूँ मैं ,,,

मैं आग की देन हूँ....

कालिमा में लालिमा का मैं निखार हूँ ,,,

हूँ क्रोध की जलन ,,,,,मैं प्यार हूँ ......

क्षोभ हूँ ,, लोभ हूँ ,,हूँ मोह की घनिष्टता ...

रत हूँ विरत हूँ प्रेम की ध्रष्टता ,,,,

हार में भी जीत का संवाद हूँ ,,,,

यूद्ध में मैं शंख नाद हूँ ,,,,,

इस तमिष जगत में मैं ही धीर हूँ,,,

इस कायर परत में मैं ही वीर हूँ ,,,,

हर स्वांस मेरी यूद्ध घोष है ,,,,,

हर लव्ज में मेरे खूब रोष है ,,,

जोश हूँ रोष हूँ और हौशला भी हूँ ,,,,

कृत्य हूँ कर्ताहूँ और और फैशला भी हूँ ,,,

इस अंधड़ की आग में मैं फिर रहा हूँ घूमता ...

इस काँटों के बाग़ में मैं फिर रहा हूँ ढूडता ,,,,

महिमा हमारी जो खो गयी ,,,,,

कल रात कर्म से मेरी सीधी भेट हो गयी ,,,,

Sunday 26 April 2009

उदिग्न मन ,,,


आज उदिग्न मन ,,,

कम्पित जीवन की रसता भांप रहा है ,,,,

विचार शील हर्दय की अंतरात्मा से ,,,,

कोई झांक रहा है,,,

पूछता है हमारे दीर्घ कालिक उत्तथान का ॥कारण???

वैभवता की चाहत ???

निराशित ,मन का सुकून ....

आलोक के लिए पल पल क्यों दौडा जा रहा हूँ मैं ??

कोमल भावनाओं को क्यों रौंदे जा रहा हूँ मैं ?/

मैं हतास नहीं हूँ इस जीवन की धारा से ,,,,

भीवत्स से इस जीवन के अस्त बल में दौड़ रहा हूँ ,,,

ना खत्म होने बाली दीर्घकालिक दौड़ के लिए ,,,,

पारलौकिक चाहता है ,,,,

मुझे भान हो रहा है,,,

पल पल मेरा मान खो रहा है ,,,

क्यों की जुगुप्त्सा मेरे अंतस से उभर रही है,,,,

आंतरिक उर्जा निखर रही है ,,,

विचलित मानसिक्ताये मुझे घेर रही है ,,,

व्यकुल्ताये मुझे घेर रही है ,,,,

एक आलोक के पास जाने की चाहत॥

मेरे मन में उदभासित हो रही है,,,

बड़ी विचारशीलता से मैं अपने को देख रहा हूँ ,,,

शक्ति से शाक्त की पूजा के लिए,,,,

आज मैंने अपने आप को संभाल लिया है ,,,

कम्पित राहों पे बढ़ने के लिए,,,

मैं शांत हूँ ,मौन हूँ , व्याकुल हूँ ,,

और मेरा जीवन हांफ रहा है ,,,

आज उदिग्न मन ,,,

कम्पित जीवन की रसता भांप रहा है ,,,,

बरण,,,,


इन लावारिश लाशो पे चढ़ के ,,,

कहाँ जा रहे है हम और आप ,,

ये भीवत्स तो नहीं पर सडन मार रही है ,,,

जब व्याकुलता बढती है ,, तो ,,,

आँखे बंद कर लेते हो ,, दोस्त ...

ये तुमरे अन्तश की गहराईयों में उतर रही है ,,,

अपने चरित्र की बलि दे कर तुम,,,,

क्यों इन्हें ढो रहे हो,,,,,

यज वेदियों को रक्त से धो रहे हो,,

देकर दीर्घकालिक आकन्क्षाओ की बलि,,,

चारित्रिक हास कर मनोरंजन कर रहे हो ....

क्या तुम्हें नहीं सुनाई देती ,,,

स्तव्ध अंतरात्मा की आवाज ,,,,

कितनी उच्छ्लता से नपुंसकता की ओर बढ रहे हो ....

बड़ी वेशर्मी से उजागरण,,,,,

आदर्शनियता का ,,,,,,,,,

वेदर्दी से अनाबरण ,,,,,

दयनीयता का ,,,,

मत भूलो तुम छोड़ रहे हो अलोकप्रिय छाप,,,,

इन लावारिश लाशो पे चढ़ के ,,,

कहाँ जा रहे है हम और आप ,, ............

मौन हो के सुन रहे हो गालिया जमीर पे ...

क्यों कर रहे हो शक आंचल से ढके ममत्व पे ,,

क्यों कर रहे हो वेपर्दा पर्दनीय को ,,,,

क्यों दिख रही है मुझे तुममे वहशियत ,,,

आज तुम्हारी आँखों में वो प्याश नहीं ,,,,

वो प्याश नजर आ रही है ,,,,,,,

मित्र जाग जाओ ,,,,

इस दीर्घ कालिक निद्रा से ,,,

पहचान लो अपने पतन की गहराई ,,,

दूर हो जाओ इन दुर्भिछुओ के दल से ,,,

इन नर पिशाचो के अस्तबल से ,,,,

मत करो उनका बरण,,,,

जिन्हें शादियों से रखा है ढाप,,,,

इन लावारिश लाशो पे चढ़ के ,,

कहाँ जा रहे है हम और आप ,,.......

धूप


धूप से जो बर्षा था यौवन ,,,

खिल उठा धरती का मन ,,,

घाश की नोकों से हंसती ,,,

चुलबुली झोको से हंसती ,,,,,

प्यार ले ले के बरसती ,,,,

प्यार दे दे के बरसती,,,,

वो चंचली बाला ,,,,,,

हर अंग था उसका पुलकित ,,,,

हर ढंग था उसका हर्षित ,,,,

यौवन के दहलीज पे ,,,

रखती कदम वो चल रही थी ,,,,

हर मोड़ पर गिरती फिर ,,,,

गिर कर सभल रही थी ,,,,,

सौन्दर्य उसका गिर रहा था ,,,

वस्त्र की सिलवटो से ,,,

उठ रही थी मंद गंधे ,,,,,

जुल्फ की लटो से ,,,,,

विचारशील सी वो ,,,,,,

मुग्ध चल रही थी ,,,

हर घडी घमंड से ,,,

उछल रही थी ,,,,,

साँस उसकी तेज थी ,,

और हौसले बढे हुए ,,,,

कर रहे थे स्वागत ,,,

लोग सब खड़े हुए ,,,

वो मुस्करा रही थी ,,

गा रही थी ,,,

गीत ही गाये जा रही थी,,,

कुछ चमक थी कुछ दमक थी ,,,

पहन रखा था जी उसने वसन ,,,

धूप से जो वर्षा था यौवन ,,,,,

खिल उठा धरती का मन ....

Saturday 25 April 2009

बूंद


कर रही खुद को समर्पित बूंद जो गिरती मेघो से ,,,,
कर रही हर साँस अर्पित बूंद जो गिरती मेंघों से ,,,

हिम के सागर में वो खुद को बुलंद कर रही थी ,,,,

हौसलों की टोकरी में चाहते भर रही थी ,,,,,,

स्वछंदता में हो मगन ,,,,,

स्वछन्द ही विचर रही थी ,,,,,

कंठ से झर रहा था राग ,,,,

रागिनी विखर रही थी ,,,,

कर रही ह्रदय को कम्पित ,,,,

बूंद जो गिरती गमो से ,,,

कर रही खुद को समर्पित बूंद जो गिरती मेघो से ,,,,,

छोड़ कर दामन सखी का,,,,

वो चली खुद को मिटने,,,,

देख कर रुखी जमी को,,,,,,

वो चली उसको हटाने ,,,,,

स्वलोभ का उसने दमन कर,,,,

सत्य को अपना लिया है ,,,,,

खोल कर अज्ञान आबरण ,,,

खुद को पचा लिया है ,,,,,

कर रही मन को ससंकित बूंद जो गिरती लवो से ,,,,

कर रही खुद को समर्पित बूंद जो गिरती मेघो से ,,,

पर दरिद्र उसका छोड़ता क्यूँ दामन नहीं ,,,,

आकर गिरी कीच में आश न पाकर कहीं ,,,

सब स्वप्न उसके धुल रहे थे हर घडी दर घडी ,,,,

आँख नम थी मन भरा था सोचती थी वो पड़ी ,,,,

मौन मानव श्रंखलाये उस पर हँश रही थी ,,,,

फव्तिया भद्दी सी उस पर कस रही थी ,,,,,

अब सांसो का हर घडी उसको समर्पण था ,,,,

पर हित की लालसा में जीवन ही अर्पण था ,,,,

सब स्वार्थ में उसको मिटाने चल रहे थे ,,,,,,

क्यों सोचते नहीं वो बूंद भी रही थी ,,,,,

कर रही थी कुछ वो अंकित बूंद जो गिरती मगों पे ,,,,,

कर रही खुद को समर्पित बूंद जो गिरती मेघो से ,,,,,

महात्मा गाँधी व मल्लिका शेरावत में समानता ?



क्या कभी हो सकती है ,,,,


महात्मा गाँधी व मल्लिका शेरावत में समानता ,,,,


क्या कोई व्यक्त कर सकता है उनकी महानता,,,,


एक के आगे अंग्रेजी नियत झुकती थी ,,,,


एक अंग्रेजियत के आगे झुकती है ,,,,


एक के दिल में मानवता के लिए बड़ा प्यार था ,,,,


दूसरी मानव मानव से प्यार करती है ,,,,


वहां भीड़ उमड़ पड़ती थी उनकी एक वोली पर ,,,


यहाँ कोहराम मच जाता है इनकी एक ठिठोली पर ,,,,


उन्हों ने सात्विक आहार अपनाया ,,,


फ्रीडम फाइटिंग के लिए ,,,,,


इन्होने भोजन गवाया ,,,


डाईटिंग के लिए ,,,,,,


वह विचारो पे राज करता था ,,,,,


ये दिलो पे राज करती है ,,,,,,


एक देश भक्ति भरता था ,,,,,


एक देह भक्ति भरती है ,,,,,


एक स्त्री शिक्षा व गरीबी पे ॥


कार्य शालाए आयोजित करता था ,,,


दूसरी एड्स व सेक्स पर सेमीनार करती है ,,,


एक सत्य व अहिंसा का पुजारी था ,,,,


दूसरी फैशन व विलासिता की पुजारिन है ,,,,


एक शादी के बाद भी व्रह्मचारी था ,,,


दूसरी कुंवारी भी ना ब्रह्म्चारिन है ,,,,,


पर दोनों में कहीं न कही ताल्लुकात है,,,


कही पे जुड़े हुए जज्वात है ,,,,


दोनों में एक लम्बी समानता है ,,


या यूँ कहे की महानता है ,,,,


दोनों ने ही कपडे उतार दिए ,,,


एक ने देश के लिए ,,,,,,


दुसरे ने देश वाशियों के लिए ,,,,,,



Friday 24 April 2009

क्रांति



इस सम्मोहन की घड़ी में ,,,


वैचारिक क्रांति के साथ ,,,


निर्भीकता से उदिग्न होती ,,,,


भावनाओं को पीछे छोड़ता हुआ,,,


आंतरिक उर्जा व स्पस्टता को समेट कर....


मैं गमन कर रहा हूँ ,,,


इन श्रंखलित होती भावनाओं से निकल रहा हूँ ,,,,


पता नहीं मिलेगी अथाह गहराई ,,,,


या समुचित विकिशित सभ्यता ,,,,


हर कदम पे पड़ेगे थपेडे ,,,


पार करने होंगे पथ टेड़े,,,,


फिर गौरवान्वित हो कर मैं कह सकूँगा ,,,


असीम की प्राप्तता को ,,,,,,


फिर हर्षित हो कर मैं सह सकूँगा ,,,,


कष्ट की व्याप्तता को .....


ये विशुद्ध वैराग ही सही,,,,,,


ये दुर्वुध राग ही सही ,,,,,


या हो चाहता अप्राप्त की ,,,,


मौन ही सही बढता रहूँगा ,,,,


धीमे ही सही चड़ता रहूँगा ,,,,


पार कर लूँगा कठ्नायिया,,,,


हौसलों के रथ से ,,,,,,


पाट दूंगा खायिया ,,,,,


जज्बात की परत से ....


मिटा दूंगा भेद लौकिक व पारलौकिक का ....


कर लूँगा दर्शन ,,,,


शून्य से अलौकिक का ,,,,


इन उठ रही ज्वलंत लहरों को ,,,


मैं नमन कर रहा हूँ ,,,,,,


मैं गमन कर रहा हूँ,,,,,,,,,,,


डूबती धडकनों की बात कर रहा हूँ ,,,


डूबती धडकनों की बात कर रहा हूँ ,,,

आज जिन्दगी में जी के मर रहा हूँ ,,,

आँख नाम दीवारों में ख़ुशी ढूडती है ,,

मौत की बहारो में जिन्दगी ढूडती है ,,,

सब सोख नगमे घुले जा रहे है ,,,,

सारे राज दिल के खुले जा रहे है,,,,

रात चांदनी जली जा रही है ,,,,

चाहते जमी में मिली जा रही है ,,,,

लम्हे गिन गिन के दमन कर रहा हूँ ,,,,

दर्द सब भुला के हसन कर रहा हूँ ,,,

साँस थम रही है और मै मर रहा हूँ ,,,

डूबती धडकनों की बात कर रहा हूँ ,,, ,

उनीदी में जगा जगा जहाँ है ,,,,

गमो में बहकता भीगा समां है ,,,

तनिक रागिनी है तनिक रौशनी है ,,,,

तनिक सी तपिश तनिक चांदनी है ,,,

दर्द का समंदर घुला जा रहा है ,,

डूब कर भी कितना मजा आ रहा है ,,

हर सीखी लिखाब ट छूटती जा रही है ,,,,,

हर पल तेरी ही झलक आ रही है ,,,

जां निकल रही है और मई डर रहा हूँ ॥

डूबती धडकनों की बात कर रहा हूँ ,,,

आज मिट रहे सब धूमिल से सपने ,,,

मुहं मोड़ कर निकलते है अपने ,,,,

चांदनी मुझे कुछ दिए जा रही है ,,,

जख्म दिल के वो लिए जा रही है ,,,

है क्रंदन सांसो में ,,,,

धुआं छा रहा है ,,,,

अब मौत से सामना हुया जा रहा है ,,,,

आज दर्द दिल में छुआ जा रहा है ,,,,

शांत मैं कफ़न का वसन गिन रहा हूँ ,,,

नब्ज जम रही है और मैं बिखर रहा हूँ ,,,,

डूबती धडकनों की बात कर रहा हूँ ,,,

दिल में घुसने लगा जहर सा ,,,


दिल में घुसने लगा जहर सा ,,,

आंख आंशू भर रहे है,,,,

बंद थे जो जख्म दिल में ,,,,

आज वो उभर रहे है ,,,,,

तनहा तनहा जी रहे थे ,,,

बांध कर सारा समंदर ,,,,

चुपके से आंशू पी रहे थे ,,,,

बांध ली थी अपनी दुनिया ,,,

इन वीराने जंगलो में ,,,,

पर ना जाने क्यों यहाँ ....

बसने लगा शहर सा ,,,,

दिल में घुसने लगा जहर सा ,,,,,,,

हर याद को तेरी हमने भुला दिया था ,,,

हर जख्म में तुझको हमने मिला लिया था ,,,

हर घुटन में मय के ,,

तू ही तू तो चल रही थी ,,,

दिल की धडकनों में तू ही उछल रही थी ,,,,

खामोश था मैं और सांस जल रही थी ,,,,

हर घड़ी नब्ज छूटने को मचल रही थी ,,,

लग रहा था जैसे चलने लगा कोई कहर सा ,,,,

दिल में घुसने लगा जहर सा ,,,

मुश्किलों से सांस की डोर को पकडे हुए ,,,,

मुठ्ठियों में भींच कर जख्म को जकडे हुए ,,,,

हर शून्य शाम में तेरी राह तक रहा हूँ ...

।तेरी एक झलक को मैं दर दर भटक रहा हूँ ,,,

मौन बादलो से भी मैंने एक ही सुना है राग ,,,

देखो वो जलने लगा है कोई बेसबर सा ,,,,

दिल में घुसने लगा जहर सा ,,,


आज हर शाम मुझ को सजा देती है ,,,



आज हर शाम मुझ को सजा देती है ,,,


चुटकिया लेती है , और रुला देती है ,,,


हर तरफ दुःख अबसाद है फैला हुया ,,,


है घुटन और दर्द सा घुला हुया ,,,


मुश्किलों से उनको मैं भूल पाया था ,,,


मुश्किलों से जज्बात को दिल में दवाया था ,,,


हर घड़ी माहौल के माफिक ही चलता था ,,,,


हो ख़ुशी या हो गम पल पल उछलता था ,,,


मालूम न जाने क्या गिरा इस राख के अम्बर से ,,,


मालूम न जाने क्या उठा इस खाक के अम्बर से ,,,


जिन्दगी जलने लगी और खो गया सारा सुकू ,,


अब आहटो की हर धमक मुझको हिला देती है ,,,,


आज हर शाम मुझ को सजा देती है ,,,


वक्त वे वक्त कुछ याद आता है ,,,,,,


धड़कने रूकती है चैन जाता है ,,,,,


सपने टूट जाते है , खुशिया बिखरती है ,,,,,


हौसले पस्त होते है , शर्म भी डूब मरती है,,,,


चाह की याद जम जाती ,,,,


मिलन की चाह थम जाती ,,,,,


घुटन पल पल भड़कती है ,,,,,,


आग पल पल सुलगती है ,,,,,


हम गिर गिर सभलते है ,,,,,


फिर गिरते हुए चलते है ,,,,


मौत भी पास आती है ,,,,


पास आके सुलाती है ,,,,


मौत के आगोस में पल पल मैं सोता हूँ ,,,


पर तेरी एक याद मुझ को जिला देती है ,,,,


आज हर शाम मुझ को सजा देती है ,,,

आज हर शाम मुझ को सजा देती है ,,,


चुटकिया लेती है , और रुला देती है ,,,


हर तरफ दुःख अबसाद है फैला हुया ,,,


है घुटन और दर्द सा घुला हुया ,,,


मुश्किलों से उनको मैं भूल पाया था ,,,


मुश्किलों से जज्बात को दिल में दवाया था ,,,


हर घड़ी माहौल के माफिक ही चलता था ,,,,


हो ख़ुशी या हो गम पल पल उछलता था ,,,


मालूम न जाने क्या गिरा इस राख के अम्बर से ,,,


मालूम न जाने क्या उठा इस खाक के अम्बर से ,,,


जिन्दगी जलने लगी और खो गया सारा सुकू ,,


अब आहटो की हर धमक मुझको हिला देती है ,,,,


आज ,,,,


वक्त वे वक्त कुछ याद आता है ,,,,,,

धड़कने रूकती है चैन जाता है ,,,,,

सपने टूट जाते है , खुशिया बिखरती है ,,,,,

हौसले पस्त होते है , शर्म भी डूब मरती है,,,,

चाह की याद जम जाती ,,,,

मिलन की चाह थम जाती ,,,,,

घुटन पल पल भड़कती है ,,,,,,

आग पल पल सुलगती है ,,,,,

हम गिर गिर सभलते है ,,,,,

फिर गिरते हुए चलते है ,,,,

मौत भी पास आती है ,,,,

पास आके सुलाती है ,,,,

मौत के आगोस में पल पल मैं सोता हूँ ,,,

पर तेरी एक याद मुझ को जिला देती है ,,,

,

Thursday 23 April 2009

उठ पथिक मंजिल को अपनी तू निहार ,


उठ पथिक मंजिल को अपनी तू निहार ,

जाना है दूर तुझ को मत कर विहार ,,

कठिनाई तेरे हौसले है और हिम्मत भी

प्रेम तेरा मार्ग दर्शक और दौलत भी ......

धरती कुटुम में घूम बनके मधुप ,,,,,,,,

चूम ले सारी नवीनता बनके रसिक ,,,,

उठ पथिक उठ पथिक उठ पथिक ,,,

बन विरत बन विरत बन विरत ...

ज्ञान तेरी आरजू चाहत भी है वही,,,

ना वैराग का डर हो चाहत भी हो नहीं ,,,,,,

जाग इस धरा में चढ़ उचाई रवि सम ,,,

विचलित न हो अरी आंधिया हो चाहे विषम ,,,

मनुष्य से मनुष्य को तू मिला दे ..........

फांसले उनके बड़े उनको मिटा दे ,,,,

बन जनक बन जनक बन जनक,,

उठ पथिक उठ पथिक उठ पथिक ,,,,,

हूँ प्राणी नीचे सागर का उच्छ्लता की चाह मुझे ,


हूँ प्राणी नीचे सागर का उच्छ्लता की चाह मुझे ,

कठिनाई आये या जाये उसकी ना परवाह मुझे ,,

रूढी मानवता में मैं नवता का संचार करू...

नवीनता ही जीवन है उसका ही ध्यान धरु ....

चढू उचाई इस कम्पित जीवन की ,,,,,

दुःख की गहरी नदियों को भी मैं पार करू ॥

पीछे मुड के मैं न देखूं , भाये आगे की राह मुझे ,,,,

हूँ प्राणी नीचे सागर का उच्छ्लता की चाह मुझे ,,,

कंटक दुश्मन बो दे या भर दे घावो की नदियाँ ,,,

प्रेमी बनके उनकी इस कटुता का त्याग करू ,,,,

पर्वत आये नदिया आये या सागर ले हिलोरे ,,,

जीवन पथ पर बढ़ता जाऊं कदम रुके ना मेरे ,,,,,

अपने ही दुश्मन बन जाए इसकी ना परवाह मुझे ,,,,

हूँ प्राणी नीचे सागर का उच्छ्लता की चाह मुझे

Wednesday 22 April 2009

देखो बो भारत का भाग्य खेलता है |


देखो बो भारत का भाग्य खेलता है

कंधो पर है भारी बोझा

धूसित तन मिटटी के रंग का,

गायो के संग खुद चरता जाता ,

ता ता थैया करता जाता

पाबो मैं काँटों की किले चुभती।

सूरज तपता समता खोकर के,,

अपनी मस्ती में मस्ती लेताबढ़ता जाता, बढ़ता जाता

लेता न कही बिश्राम पथिक बो,,,

मानो सब पूरित करने की ठानी हो,,

आँखों से आंसू निर्झर बहते,,

पेटो की पसली चमक रही है ,,,,

मानो सागर खुद मोती उड्लाता,

इस कल के भारत के ऊपर,,

करना चाहता सर्वस्व निछाबर,,

इस मीठे बालक के ऊपर,,

खाने को क्या मिलती रोटी,,

ये मैदानों का बिस्तर सादा,,,

क्या सच में भारत का भाग्य यही है,,,

नहीं नहीं दुर्भाग्य यही है,,,

नित नित उसका खोता जायेगा

फिर एक एक बालक सोता जायेगा

कुछ शेष नहीं अबशेष रहेगा...

इस मौन कुटीर मैं धाम बनेगा....

उस बालक की छाती के ऊपर

राष्ट्र गान का बोल बोलता है,,,,,

देखो बो भारत का भाग्य खेलता है,,,

जुदा ही करना था तो वफ़ा क्यों की ,,,,,


जुदा ही करना था तो वफ़ा क्यों की
सजा ही देनी थी तो खता क्यों की
गवारा ना होती तेरी ये जुदाई .
सही ना जाये तेरी ये वेवफाई
दिल चट्कता है रोता ये मन ,
शमा से तो शुलगता ही है तन .
नशा ही करना था तो दवा क्यों दी ,
जुदा ही करना था तो वफ़ा क्यों की
सजा ही देनी थी तो खता क्यों की

कंहा तक तेरी मैं यादे मीटाऊ
तुझे दूर करके किसे मैं लगाऊ
कशक दिल में उठती , मन में चुभन सी
ख़ुशी तू दुखी मैं , होती जलन सी
मन ही करना था तो हाँ क्यों की
जुदा ही करना था तो वफ़ा क्यों की
सजा ही देनी थी तो खता क्यों की

पास आने की दावत दे फासला बढाया
गिरना ही था तो क्यों ऊपर चडाया
कम या ज्यादा थोडी सी तो पी है ,
करी थी मोहब्बत , तू वो नहीं है
रुला ही देना था तो ये अदा क्यों की
जुदा ही करना था तो वफ़ा क्यों की
सजा ही देनी थी तो खता क्यों की

पलक में मिटाए अरमा मेरे सब
दिल में जो था वो मिटा , पता न कब
दुल्हन बनाने की उम्मीदे टूटी
नाज था जिसपे किस्मत वो फूटी,
मजा न देना था तो सजा क्यों दी
जुदा ही करना था तो वफ़ा क्यों की
सजा ही देनी थी तो खता क्यों की

कब तक न तुम आओगे,,,,,



कब तक न तुम आओगे,

मुझ्को यू तडपाओगे ....

कब तक न तुम आओगे,

मुझको यू तडपाओगे,,,,

जाने बाले लौट आ पीछे तेरा करवा,,,

जाने बाले लौट आ पीछे तेराकरवा ,,,

जाने बाले लौट आ पीछे तेरा करवा,,,

दिन बरसों से भारी राते विरह की मारी,,,

कब तक प्रेम की प्यास जगाओगे ,,,,

कब तक न तुम आओगे,,,

कब तक मुझकों यूँ तडपाओगे,,,

तुमरी राहों में आँखे बिछा के ,,,

चुप हूँ अपने अरमा दवा के,,,,

पत्थर दिल बनके मुझकों भुलाओ ना,

जाने बाले लौट आ पीछे तेरा करवा ,
सूना सा दिन है ये सूना सा जीवन.....

गए हो मेरे दिल से जब से तुम साजन.

होगे दुखी जब मुझकों ना तुम पाओगे..

कब तक मुझकों यू तडपाओगे?

कब तक न तुम आओगे ?...
जाने बाले लौट आ पीछे तेरा करवा...

चाह थी जिसकी बो मिल ना सकी .


चाह थी जिसकी बो मिल ना सकी .
अनचहे से मिलन का क्या फायदा ,
चाहते इन्तहा मेरा ,दिल के इन्तहा
से क्या फायदा .
चाह थी जिसकी बो मिल ना सकी .
अनचहे से मिलन का क्या फायदा ,
दर्द दे के भी खुशिया मिले तुमको यारा,
दुआ दे ये तडपता दिल हमारा.
दवा दे के जख्म देने का क्या कायदा ,
चाह थी जिसकी बो मिल ना सकी .
अनचहे से मिलन का क्या फायदा ,
गम ले ले के हम गमगीन हों ,
पर तेरी हर शाम रंगीन हों .
हम तो जले ही , जले को जलने से क्या फायदा
चाह थी जिसकी बो मिल ना सकी .
अनचहे से मिलन का क्या फायदा ,
फूल भी हम को चुभन दे ,जलाये हमे.
हवा भी हम को सलन दे व सलाये हमे
दुआए तुमको लगे वा हमको बददुआ .
चाह थी जिसकी बो मिल ना सकी .
अनचहे से मिलन का क्या फायदा ,
जाने हमको सबेरा की चाहत नहीं ,
हम तो अंधड़ में दुनिया मिटा देंगे .
फिर तनिक सी रौशनी का क्या कायदा
चाह थी जिसकी बो मिल ना सकी .
अनचहे से मिलन का क्या फायदा ,

वाशी ओ तुझको वसाया अपने दिल में .,,,


वाशी ओ तुझको वसाया अपने दिल में ।,,


राते गिन गिन के काटी दिन गिन गिन के,,,


सांसो में तू ही तू धड़कने तेरी रही,,,


कसम से कसम में भी तू रही ,,,,


जिस्म में तू रही जज्बात भी तेरे रहे ,


मेरा था ऐसा क्या तू ना जिसमे ,।


वाशी ओ तुझको वसाया अपने दिल में ।


राते गिन गिन के काटी दिन गिन गिन के,,,


चाह में तू ही थी चाहत वा चाहवी,


प्रेम तू प्रेमी तू ,तू ही प्रेमिका भी…।


रीझ खीझ मान मन तू ही मनुहार भी,,,


मेरे में तू तेरे बिन मैं किस में ,,,


वाशी ओ तुझको वसाया अपने दिल में ।


राते गिन गिन के काटी दिन गिन गिन के,,


रंग रूप में तू रूप योवना ।


किस किस में रखु , तुझ से ही तो मैं बना,,


दंभ क्रोध चाल हुस्न तुझमे ही ।


पल पल तू ॥ तू है न किसमे,,,,


वाशी ओ तुझको वसाया अपने दिल में ।


राते गिन गिन के काटी दिन गिन गिन के


हार जित खेद दुःख,,,,,,,,,,,


धर्म कर्म नीत सुख .....


प्रश्न मंत्र यज्ञ अग्नि,,,,,


तू ही आहवी,,,,,,


शुन्य जिस्म मेरा वो तू न जिसमे ………


वाशी ओ तुझको वसाया अपने दिल में ।


राते गिन गिन के काटी दिन गिन गिन के,,,,







बंदिशो में न रहती मोहब्बत ,




बंदिशो में न रहती मोहब्बत ,


उसे तो खुला आशियाना चाहिए ,


प्रेम की कशिश भी क्या कशिश हैप्रिये ,,,


हम तो तनहा जिए व तनहा मरे ।


तान्हाइयो से हुई है मोहब्बत,,,


तन्हाईयो का ही दरमियाना चाहिए ।


बंदिशो में न रहती मोहब्बत ,


उसे तो खुला आशियाना चाहिए,,


खुदा गवाह इसमें कत्ले आम होते ,


बिछुड़ते कितने कितने रोते ।


कालिख से पुते दिन मौत सी ये राते,


पर हमें प्रेम का दिया ना चाहिए ,


बंदिशो में न रहती मोहब्बत ,


उसे तो खुला आशियाना चाहिए,


गली की कलि फूल बन के इतराई,


हालत पे उसके हमको तरश आयी,


न गली के गीत , न चमन के संगीत,


हमें तो पुराना रागियाना चाहिए ।


बंदिशो में न रहती मोहब्बत ,


उसे तो खुला आशियाना चाहिए,


प्रेम की परी भी थी तनहा मरी ,


क्यों करी थी मोहब्बत , क्यों मोहब्बत करी


है मिलन की न चाहत ,,


अबतनहाइयो का ही दर्मियाना चाहिए ,


बंदिशो में न रहती मोहब्बत ,


उसे तो खुला आशियाना चाहिए...








खुदा करे तेरी न ये जवानी रहे ,


खुदा करे तेरी न ये जवानी रहे ,

गुमान जिसपे वो न ये गुमानी रहे ॥

चंद चंद लम्हो को तड़पाया तुमने,,,

पास आया न अपना बनाया तुमने …

भरम की पली तू भरम में मिटे ,,,,

मेरे लिए तू जानी भी अनजानी रहे ,,,

खुदा करे तेरी न ये जवानी रहे ,

न शोहबत न शोहरत न नुरे रतन ॥

मरे तेरी जवानी ले जुदाई का कफ़न …

वफ़ा का सिला वेवफाई से दिया …।

मेरी न सही वेवफाई की निशानी रहे॥

खुदा करे तेरी न ये जवानी रहे ,

क्यों बददुआ दूँ मैं अपने से तुमको ॥

लानत मेरे इश्के मोहब्बत को ,,,,,,,

वेवफा से वफाई का अरमान यों

नजारे लाख देता पानी पानी रहे…

खुदा करे तेरी न ये जवानी रहे ,

खता तेरी क्या मैं ही गुनहगार था ,,

भटके दिल ने खोजा पत्थर में प्यार था ,,

लाख समझाया तुझको वफ़ा का सिला दे

न मिलन की चाहत है बस ये कहानी रहे

खुदा करे तेरी न ये जवानी रहे ,,

,


शुक्रिया तेरा मैं अदा कैसे करूँ …..


शुक्रिया तेरा मैं अदा कैसे करूँ …॥

की तुने मुझे वेवफा बना दिया ,,,

दिल लिया दिल दिया ,,,,

दिल ले दे के दिल रुबा बना दिया ,,,

शुक्रिया तेरा मैं अदा कैसे करूँ …॥

की तुने मुझे वेवफा बना दिया ,,,

ले लिया नूर आँखों का तुने सनम,,

इश्क का दस्तूर भी न बचा ,,,,,

सजा मौत ही न होती है ,,,,,,

ये तूने सिखा दिया ,,,,

मुझे वेवफा बना दिया ,,,,

तने से कटे दिल को तूने नैया बना दिया ,,,,

अजनवी हो कर भी दिल को ,,,

आशियाना बना दिया ,,,,

शुक्रिया तेरा मैं अदा कैसे करूँ …॥

की तुने मुझे वेवफा बना दिया ,,,

जिन्दगी का वो मजा ,,,,,

तड़पने की कशिश दी ;””’

दूर तो किया ही ,,,,,,भूलने की कोशिश भी ,,,,,,

खुशनुमा जिन्दगी में जहर मिला दिया ,,,,

शुक्रिया तेरा मैं अदा कैसे करूँ …॥

की तुने मुझे वेवफा बना दिया


शराब पी नहीं मैंने शबाब का नशा है ,,,,


शराब पी नहीं मैंने शबाब का नशा है ,,,,

हुस्न का जाम न छलकाओ मुझको नशा है ,,,

यूँ नजरे चुराओ न ,,,,,,

मेरी जाँ पास आओ ना ,,,,

बदन को एसे न एठो,,,,,

मेरी जाँ मुस्कराओ ना …

आओ जा ये दिल तुझ पे वसा है …।

शराब पी नहीं मैंने शबाब का नशा है ,,,,

कमर की लचक है क्या ,,,,

हुस्न का रूप नया ,,,,,,,

पल पल पुराना है ,,,,

तेरा हर अंदाज नया ,,,

चाँद पे दाग सा मशा है ,,,,,,

शराब पी नहीं मैंने शबाब का नशा है ,,,,


ओठ रश भरे तेरे है ,,,,
गाल तेरे गोरे है ,,,,,
बाल नागिन चाँद से चेहरे को घेरे है ,,,
इसपे ही तो दिल फसा है ,,,,,
शराब पी नहीं मैंने शबाब का नशा है ,,,,

तुम थे मेरे ये मैं कैसे कहूँ ???????


तुम थे मेरे ये मैं कैसे कहूँ ???????

दर्द का दरिया ये मैं कैसे सहूँ ???

गम दे दे के तुम ने गामी कर दिया …

जख्म दे दे के तुम ने जख्मी कर दिया …

की तुमने खता ये मैं कैसे कहूँ ?????

तुम थे मेरे ये मैं कैसे कहूँ ???????

दर्द का दरिया ये मैं कैसे सहूँ ???

दिल उनको देके वफ़ा कर लिया …।

दिल हमारा न लेके दगा कर दिया ॥

अब तुम्हे वेवफा मैं कैसे कहूँ ????

तुम थे मेरे ये मैं कैसे कहूँ ???

दर्द का दरिया ये मैं कैसे सहूँ ???

दिल हटा के तुम ने ग़दर कर दिया …

आहे तो दी ही गम भी भर दिया …

अब जुदाई तेरी मैं कैसे सहूँ???

तुम थे मेरे ये मैं कैसे कहूँ ???

दर्द का दरिया ये मैं कैसे सहूँ ???

मेरे दिल का तुमने जो हॉल कर दिया,,,,,

तन्हा करके तुमने बेहाल कर दिया ,,,

तुमारे बिना अब मैं कैसे रहूँ ???

तुम थे मेरे ये मैं कैसे कहूँ ???

दर्द का दरिया ये मैं कैसे सहूँ ???


मत नाज कर अपनी रौनक पर ये हसी ,



मत नाज कर अपनी रौनक पर ये हसी ,

तेरी ये जवानी रहेगी न एक सी,

लापता से कली बन के खिल गई तू ,,

डोलते भौरे अनगिनत दुःख कि , भरमाई तू ,,

आज है जो वो , कल था या कल होगा :

सोच सोचने को क्या ?तू दंभ में फ़सी,,

मत नाज कर अपनी रौनक पर ये हसी ,

तेरी ये जवानी रहेगी न एक सी ……

जब तक खिली तेरी जवानी रहेगी ॥

है सैकडो । फिर निशानी रहेगी ॥

निचुड़ते जवानी के सब सपने झड़ जायेंगे ॥

इन दिनों कि याद में लगे गी दिल पे चोट सी,

मत नाज कर अपनी रौनक पर ये हसी ,

तेरी ये जवानी रहेगी न एक सी ……

बुडापा तंग होगा ये रौनक भी नहीं ,,,

अपनी समझती वो जवानी भी होगी नहीं,,

पल पल के यार है जो तेरे ये

पलट ते ही उनके लिए तू होगी अनजान सी ॥

मत नाज कर अपनी रौनक पर ये हसी ,

तेरी ये जवानी रहेगी न एक सी ……

प्रेम को ठुक राया तूने तब तुझ को समझ होगी ॥

चाहता था जो ,, तब उसकी नहीं तेरी गरज होगी ,,

थाम दामन अंधड़ से तुझको वो उबारे गा ……

शब्द न होगे देखती रहेगी तू ठगी सी ,,,,,

मत नाज कर अपनी रौनक पर ये हसी ,

तेरी ये जवानी रहेगी न एक सी ……





अफगानी ईराकी जीत के मत हो खुश ,,,,



अफगानी ईराकी जीत के मत हो खुश ,

ये कायर अंग्रेजी टोनी बुश ,,
पामर ने पामर को मारा,,
पामर पामर से हारा,,
गर हिम्मत थी सम्मुख लड़ते ,,,

जंगे मैदा मे सम से भिड़ते ,,

चालाकी शेरो का गुड़। नहीं,,

शियारो की थाती है ,,

सिंहों को तो केवलजंगे मैदा ही भाती है,, ,

जंगे मैदा से जो हटता,,,

बो मा का पुत्र हरामी है ,,,

मा पे सर काट काट जो होम करे,,,

बो हम ही हिन्दू नामी है,,.

तेरी मा का सर छिन्न भिन्न तू हँसता है ,,,

निज मा का विधबा पन भी तुझको जचता है,,

,शर्म शर्म तुझपे तेरा हो गया नाश क्यो नही,,,

।लाखो लानत तुझपे तेरी रुक गई सांस क्यो नही ,,

,यह हम वीरो की दम है,

जो पय पान सिंहनी का करते,,

आरी आँखे उठी नही कि अंगारों से उनको भरते..

हम मूछ धर्म पर मरने बाले,,

मा का सौदा कभी न करते ,,,

अपनी तो अपनी हम दुसरो कि मा का भी आदर करते ,,,

गर कुद्रस्तीगई मा दामन पे,,

हम आग लगा देंगे तेरे घर मे,,

सर काट काट रण पाटेंगे,,

अमरीका को हम बाटेंगे,,

हे तुच्छ जीव हे तुच्छ प्राण,,

कर लो अपना तुम समाधान,,

दुश्मन के लिए बनेगे हम लव कुश,,

ये कायर अंग्रेजी टोनी बुश


नाम मेरा है भ्रस्टाचार

नाम मेरा है भ्रस्टाचार,,,,
जहाँ न कोई आचार विचार ,,,
दुनिया भर में व्याप्त हूँ मैं ,,,,,,
पर एक जगह अभिसाप्त हूँ मैं ,,,,
रहना मना छोटे घर बार ,,,,,,,
नाम मेरा है भ्रस्टाचार,,
पुलिस, डाक्टर ,नेता हो,,
सारी दुनिया का चहेता हो ,
होगा मेरा आज्ञा कर ,,,,,,,
नाम मेरा है भ्रस्टाचार,,
इर्ष्या गुस्सा दादा दादी ,,,
बेटा बेटी खून बर्बादी ,,,,,
चोरी चपलता रिश्तेदार ,,,,,
नाम मेरा है भ्रस्टाचार,,,
रिश्वत बाई बीबी मेरी …।
धन से मेरी प्रीत घनेरी ,,,,
है भरा पुरा मेरा परिवार,,,,नाम मेरा है भ्रस्टाचार
काले गोरे का भेद न मुझको
हार जीत का खेद न मुझको …
नीचे से ऊपर तक मेरी सरकार …॥
नाम मेरा है भ्रस्टाचार,,,,
ऊँचे नीचे वेतन भोगी ,,,,,
छात्र अध्यापक या उधोगी ,,,
सब पर मेरा सामान अधिकार
नाम मेरा है भ्रस्टाचार,,,,


कितनी तीव्र व्यथा


कितनी तीव्र व्यथा ,,,

ढो रहे हो हे तुच्छ जीव,,,

शायद ही सुख भान किया हो,,,कभी

शायद ही श्रम दान ना किया हो ,,,,कभी

कितना घ्रूणित है तुमारा जीवन ,,,

कितना कुंठित है तुमारा मन ,,,

कभी व्योम के पार ,,,

तुममे देखता हूँ,,,

कभी निज हर्दय के उदगार,,,

तुममे देखता हूँ ,,,

कितना मस्त है ,,,

जीवन तुम्हारा ,,,

कितना व्यस्त है ,,,

जीवन तुमारा ,,,

पर मन ना कोई क्षोभ,,,

दिखता न कोई लोभ ,,,

हो प्रयासित ,,,

करने को प्रसारित ,,,

कर्म वड्या वधिकारस्तु,,,

माँ फलेसु कदाचिन,,,

है कितनी वयघ्रता ,,,

उन्नत नशा ,,,

कितनी दारुण दशा ,,,

कितनी तीव्र व्यथा ,,,

हे प्राणी उनकी जय वोलो…


हे प्राणी उनकी जय वोलो…

देश शान पे निज मिटा दिया …

माँ के चरणों में सर कटा दिया ,,

हँसते हुए चूमा फासी का फंदा ॥

मरने को तैयार था बन्दा बन्दा…।

अब तो अपना मुह खोलो ,,,,,,,,

हे प्राणी उनकी जय वोलो ,,,,,,

सच्चे थे वो प्यारे थे ,,,,,

वो देश भक्त ही न्यारे थे ,,,

अंगारे जिनकी शय्या थी …।

यह देश ही जिनकी मैया थी ,,,

अब तो प्यारे आंखे खोलो …॥

हे प्राणी उनकी जय वोलो ……

चाह थी मरते दम तक आजादी की ,,,

घर की चिंता थी न शादी की ,,,

खुद कष्ट लिया तुम्हें चैन दिया ,,,,

अरी रक्तो से भर दी नदिया,,,,,

जो राह दिखाई उसपे होलो ……

हे प्राणी उनकी जय वोलो ,,,,,,,,,



नया साल सुर गीत नया नयी ताल है …


नया साल सुर गीत नया नयी ताल है …

नव योवन कारुप नया नवीन बात है…।

कुंद मुकुंद त्रण त्रण कण सब नया ,,,

नब प्रभात नव आभा नव प्रकाश है ,,,

तरु नया कानन नए पुष्प पल्लव भी नए ,,,

स्रष्टि का हर रूप नया सब नवीनता है ,,

भाईचारा मानवता का भी पाठ नया ,,,,,,

धर्म नया नई आश विस्वाश नया है ,,,

प्रेम नया प्रेमालाप भी निष्कलंक नया,,,,

दिन नया पल नया नई प्रस्वाश है

उच्छल जीवन की निश्वाश ,,,,,


न्यारी दीदी प्यारी दीदी ,,,

मार्त रूप तुम ,,,

भार्त रूप तुम,,,

उच्छल जीवन की निश्वाश ,,,

त्रण त्रण टूटा मन तुम उसकी आस ,,,

दुःख सी गहरी,,,

सुख की प्रहरी (“”"”")

चंचलता में निश्चलता की मूर्ति??

हो मेरे नीराश जीवन की पूर्ति,,

करुणा में ,,,

करूणामय”"”"”"”"”"

खिलाती कष्टो की किलकारी ,,,

एसी अदभुत है दीदी हमारी,,,

॥न्यारी दीदी प्यारी दीदी ,,,


और बरस एक बीत चला


और बरस एक बीत चला ,,,

सांसो का संगीत चला ,,,

पिछली सब धूमिल यादे,,,

अंकित करता अंकित करता,,,

अपनों का ये मीत चला ,,,

और बरस एक बीत चला ,,,

सब मीठी वा तीखी यादे ,,,

कुछ आधे कुछ पूरे वादे ,,,

आगोसो में अपने लेके ,,,

जीवन का ये मीत चला ,,,

और बरस एक बीत चला ,,,

कर धैर्य परिक्षा जीवन की ,,,

ले अग्नि परिक्षा इस तन की ,,,

साहस की एक सीख सिखा के ,,,

अपनों से हो भय भीत चला ,,,

और बरस एक बीत चला ,,,

रखूगा तुमको यादो के ,,,

सुंदर से एक झरोखे में ,,,

रातो का सपना जैसे,,,

अपनों का ये मीत चला ,,,

और बरस एक बीत चला,,,

आने बाला कल होगा,

यादो का सगूफा जैसे ,,,

तुम अंतस के चेरे थे ,,,

भूलूंगा तुमको कैसे ,,,

भरती आँखों का गीत चला ,,,

और बरस एक बीत चला ,,,

आओ युद्ध की गरिमा सुनावही,,..


आओ युद्ध की गरिमा सुनावही,,

रुण्ड मुण्ड सब मिल गावही,,,

छावही मरू भूमि रुण्ड ते ,,,,,

मुण्ड मुण्ड उडावही,,,,,,

गावही मरू गीत कोई ……।

मरू द्वंद कोई बजावही,,,,,

कोई छावही कोई जावही …

कोई जोर जोर चिल्लावही,,,,,

कोई हाथ बिनु मारही …॥

कोई मुख बिनु चिल्लावाही …

कोई पैर बिनु आबही ,,

कोई ,कोई पैरबिनु जावाही ,,,,,

जुंड जुंड आवही ,,,

मरू नीद सोवही॥

स्वान गीत गावही ,,,

काग गीत गावही…

गिद्ध नोच नोच के,

आतडी खावही,,,

झुंड के झुंड चील नर मुण्ड खावही…

।खावही विखरावही गीत भोज गावही ,,,,

स्वान नोचे पांव तो आंख काग खावही,,

ले जावही नभ में ,,,,

कोई नभ ते गिरावही,,,

झपटी झपटी धावही झपटी लै जावही ,,,

मरे मरे खावही अधमरे नुचावही,,,,,,

हाय हाय चिल्लावही कोई ना सुनावही…

रोवही चिल्लावही हाथ ना हिलावही,,,

खुलत झपट आंख काग लै जावही…।

चीख चीख के अधमरे,

जियति मांस स्वान खावही …॥

मनो रंक भिखारी आजु राज भोज पावही …

आओ युद्ध की गरिमा सुनावही ,,,,,,,,


कैसी मीठी वहे पवन ,,.


कैसी सी मीठी वहे पवन ।

कैसा सुन्दर नील गगन ,,

कोयल कूके हो मगन ,,,,

मानो रंगों का त्यौहार ,,

मस्ती कैसी सुहाती है ,,,,

तभी तो होली आती है ,,,

सभी तो गीत गाते है ,,,,

सभी खुशिया मनाते है ,,,,

सभी तो आते जाते है ,,,,

मानो आने जाने की वहार,,

अपने साथ लाती है ,,,,,,

तभी तो होली आती है ,,,,,,

।लगाते जी भर के हम रंग ,,,

छानते जी भर के हम भंग ,,,,

मचाते जी भर के हुड दंग,,,,,

उड़ता रंगों का गुब्बार ,,,,,

जब मस्ती छाती है ……॥

तभी तो होली आती है ,,,,,

किसी को प्यार मिलता है ,,,

किसी का हाथ जलता है ,,,,,,

कोई जी भर उछलता है ,,,,

होता जी भर के खुमार ,,,,,

धरती भीग जाती है ,,,,,,

तभी तो होली आती है ……।



पीके भंग जब खेले रंग…


पीके भंग जब खेले रंग…

तोहरे संग हम गोरी,,,,,,

सब दंग दंग जब तोरे अंग अंग ??

कर दे हम जोरा जोरी ,,,,

उलक उलक जब पुलक पुलक ,,,

भर मारे पिचकारी ,,,,,,,,

कुछ हरित हरित कुछ लाल लाल,

रंग दूँ चुनरिया जब सारी ,,,,,,,

तेरा गोरा रंग ये चोली तंग ,,,,,

मारे योवन किलकारी,,,,,,,

कुछ अटक अटक ,,

कुछ खटक खटक..

दिल जाए भटक ना गोरी ,,,,,

मलूँ रंग तोरे अंग अंग,,,,

जगह ना छोडू थोरी ,,,,,,,

तू हया दया ,,,,

तू शर्म शर्म ,,,,

तू सिमट सिमट,,,

तू झिझक झिझक,,

जब तू कतराए ,,,,,,,

हम दौड़ दौड़,,,

इह छौड छौड,,,

उही छौड छौड ,,,,

पकडू वहिया थारी ,,,,,,,,,

डाल कमर में वहिया तोरी ,,,,,

हम मले रंग कर जोरा जोरी …॥

जब चडे भंग ,,,

करे हुडदंग ,,,,,

रहे शर्म ना थोरी ,,,,,

पीके भंग जब खेले रंग…

तोहरे संग हम गोरी,,,,,,

जाने क्यों ये पतझड़ आता ,,,


जाने क्यों ये पतझड़ आता ,,,

जाने क्यों मन भाता बसंत ,,,

क्यों कलिया मुस्काती ?

फिरखिल जाती ,

क्यों भौरेगाए तितली इठलाती ?

मौसम भी कितना सुहाता,,,

जाने क्यों ये पतझड़ आता ,,,

जाने क्यों मन भाता बसंत ,,,

कोयल गाए मन को भाए,

वायु भी एक राग सुनाये ,,,

पीपल बरगद नीम सब फूले

पंछी गाए निज सुधि भूले ,,

पेखी स्वर्ग मन खो जाता ,,,,

जाने क्यों ये पतझड़ आता ,,,

जाने क्यों मन भाता बसंत ,,,

पल पल धरणी का मन बढ़ता ,,

नाचे मयूर जब वादल मढ़ता …

खेतो की हरियाली ढल ,,,

पिला सोना लायी भर,,,

मनवा भी खोले निज कर ,,

झूमे राग फागुनी गाता,,,,,

जाने क्यों ये पतझड़ आता ,,,

जाने क्यों मन भाता बसंत ,,,

Tuesday 21 April 2009

वयार,,,,,,,


बड़ी लुभावन ....

है मनभावन ॥

जह फागुन वयार,,,,,,,

जान निज प्रिय आगमन …

कर नभ मुकुर श्रंगार ,,,,

चल चपला सा चितवन ,,,,

लाखे सुरपुर माधुरी ,,,,,,,

उमंडी घुमंडी येचती नव वधु सी ,,,

रम्य मूरत सुंदरी की ,,,,,

तेहि छवि जाल देखत मन वहो ,,,

लेखी उमंग निज सर छहों ,,,

रज छटक छटक गिरती ,,

मनो नुपुर कनक के,,,,

रगड़ झर झर करती …॥

मनो कर प्रेमिका के ,,,

रूपसी ने निज प्रिय के लिए ,,

सब पुष्प पुष्पित कर दिए,,,

नव गंध सुगंध भरके ,,,

पुष्प निज कर भर लिए ,,,

प्रिय आगमन ते है पसीना पसीना,,

व्याकुल निज प्रिय वसंत के लिए,,



मेरे नाना मेरे नाना.......


मेरे नाना मेरेनाना,,,,,,,,

आते ही घेरे नाना,,,,

झट से दौडा डंडा छीना,,,

झोला लीना फिर खाना …।

दाड़ी लम्बी चश्मा छोटा ,

सीसा उसमे मोटा मोटा ,,,,

कपडे पीले ढीलम ढीले …

लगते बाबा ,,,,,,,,,,

तुम भी लेलो तुम भी लेलो ,,,

थोडा तुम भी लेलो ,,,,,,,,,

चावल के दाने ,,

शक्कर के दाने,,,,

घर के पेड़े ,,,,,,,,,,,,,

हरी प्रसाद है गंगा का,,,

खाओ फिर खेलो,,,

ऊँची ऊँची उनकी बाते,,,

बाते ज्ञान सिखाती ,,,

कभी नेता ,

कभी सैनिक की ,,,

जाने किस किस की ,,,

रामायण की, गीता की ,

लव कुश वा सीता की ,,,

मिल झुल के रहो प्रेम करो ,,,

सिखाते नाना ,,,,

सुंदर सुंदर भजन सुरीले गाते नाना ,,,,,

कहानी कहते ॥

शिक्ष, अ : देते हरी प्रेरे नाना ,,,

ना गुस्सा ना नाराजी

अच्छे अच्छे मेरे नाना …।

मेरे नाना मेरे नाना

आते ही घेरे नाना///



अच्छे अच्छे मेरे नाना ….मेरे नाना मेरे नानाआते ही घेरे नाना

मुझको मिटा दो//////////

हासित कर दो ,
मुझको मिटा दो,,,
आस्तित्व हटा दो ,
ज्ञान करा दो ।॥
सत्य का,,,,
शास्वत का,,,
अविरलता का ,,,
निश्चलता का,,,,
ऐसी आसक्ति हो ,
जो केवल विरक्ति हो,,,
इस जंग से....
इस मोह से,,,
इस दंभ से...
विश्वाश लेकर//
वैराग देकर,//
कर्तव्य का बोध करा दो ...
विरक्ति भर दो,,,,
ऐसी शक्ति आए,,,
येसी भक्ति आये,,,
कलुषता धो डालू,,
कुटिलता खो डालू,,
मिटा सारी भ्रांतिया ,
ला सारी क्रांतिया।
जग अलौकिक कर दूँ,,
अध्यातम मौखिक कर दूँ,,
इस द्वंद से बचा लो,,
मुझ को मिला लो,,
परिभाषित कर दो,,
हासित कर दो ॥
मुझ को मिटा दो ,,,,,,,,,,,

क्यों अनाथ किये हो ,,,,,,,,


क्यों अनाथ किये हो..
क्यों त्याग लिए हों ,
तप रहा हूँ , इस तपिश में
डूब रहा हूँ इस अमिष में...
पुकारता मैं हारता ,
ध्यान तेरा धरता,
इस तिलिस्म माया में,,
इस विकृत काया में
मैं फंस चूका हूँ
मैं बस चूका हूँ
दरिन्द्र में ,,,,,,,,,,
इस द्वंद में ,,,
बचा लो ना ॥
हटा दो ना …
इस काल कलवित जग से ,
इस पल्लवित मग से ,,
सत्य दान दे के ,
भक्ति ज्ञान दे के
विराटता का भास करा दो
सूछ्मता का आभास करा दो ,
चाह कर भी विष पान न होने दो ,
सुख मान में भी अभिमान न होने दो
वैराग भर दो ,,,,
कठिनाई हर दो ,,,
क्यों मौन लिए हो???
क्यों अनाथ किये हो ,,,,,,,,

ओं सौर रश्मियो के पार ///


ओं सौर रश्मियो के पार ,

हे दया के आगारअंतस वेदना के हर्ता।

सत्य चेतना के कर्ता।

जुगनुओ की चमक ...

तारो की दमक ...

अन्धरो के सूत्र पात,,,

स्रजन के लिए विख्यात ,

दूर कर दो ,,,,,,,,,,

असह दुखो के बादल ।

पथ सुगम कर दो,,,,,,,

पथ प्रदर्शक बन साथ चला

रचा दो रंगीन बाना ,,,

सिखा दो नवगीत गाना

जिससे ,,,,,

प्रपंच सरे छोड़ कर ,

तुझ से रिश्ता जोड़कर ।

अगम्य सुख कापान कर लूँ

अमोघ तेराज्ञान कर लूँ ,

विचार सारी विचारकता में,

घूम सारी चराचरता में,

मैं दिव्य घोष कर दूँ ,,

तेज उदघोष कर दूँ ,,,

की तू जगत का सार है,

लिप्तता में निर्लिप्तशून्य के पार है

अब मिट जाने दो ,

अब झुक जाने दो......

ओं वैरागियो के हार ॥

ओं सूर्य रश्मियों के पार ………,

हे दया के आगार ,,,,,




म्रत्यु तो नव जीवन का प्रसार है :::::::;;


वेद और वेदांत का भाष ...

राग में वैराग का आभास ,

तुम्ही दे सकते हो

व्यथित मन थकित तन को ,

चिर विकाश कर थकान

तुमही हर सकते हो

क्या शुभ क्या अशुभ ,

तुम कण वासता हो ।

फिर क्यों दिग्भर्मित मैं ??

उखाड दो न इस दासता को ,

जग मय आप आप मय जग

भेद विभेद क्षण भंगुर है ,

फिर क्यों इस भेदता का,,

प्रखर ज्ञान होता?/

क्यों? जान कर भी स्वाभिमान सोता ॥

क्यों कुंद है ??,,,,,,,,,

सब ज्ञान की नाले …।

क्यों सुप्त है ??,,,,,,,,,,,

सब सत्य की डाले ……

अमरत्व कहाँ सोता है ???

क्यों मृत्यु से रोता है ??

ये नवीनता है नव संचार है

नए युग का प्रसार है

दुःख क्या इस में ???

जीर्ण से जीर्ण नव्य होंगे

म्रत्यु तो नव जीवन का प्रसार



मुक्ति रे “”"”"”"”"”"”"”


खोजता मैं फिर रहा ।

पूछता मैं फिर रहा ,,,

असम्भव”"”"”"”

दुःख का निराकरण ,

सुख का विवरण ,,,

कौतुक “”"”‘”"

ज्ञान की पिपासा ,,

अज्ञात की जिज्ञासा ,,

दुखांत “”"”

कर ऊँचा मनोवल ,,

ले तिनके का सम्बल,

उतरना “”

चाहता भयंकर नीर

उसको जो है तीर

किनारा “”

लौकिक आँख का सत्य ,

देखा कभी असत्य ,,

माया रे “‘”"”‘

दुःख मान का क्ष ओभ

सुख मान का लोभ ,,

व्यर्थता “”"”

बांस बिन बांसुरी

बिन तान व रागिनी ,,

भर्मता”"”"‘

दीखता असत्य का पोल

प्राप्त भ्रम का खोल ,

निर्लिप्तता “”"‘

तब सत्य ब्रहम का मिलन ,,,

निज का निज में सम्मिलन ,

मुक्ति रे “”"”"”"”"”"”"”

कुटिलता क्यों निहरता है?????////


कुटिलता क्यों निहरता है ???

क्योँ इसी में विहरता है ???

मान के सुख क्यों इसी मेंडूबता उछरता है????

भान कर शक्ति का ……

मान कर शक्ति का ,,,,,

शक्ति जीवन जीवन आधार है ,,,

शक्ति मय संसार है ,,,,,

शक्ति का अवधान कर ,,,

मत विकल हो व्यवधान कर …

मत भैभीत हो …॥

शक्ति से क्यों सिहरता है ??

कुटिलता क्यों निहरता है??

ब्रह्म मय तू ,जग ब्रह्म मय जान.

ब्रह्म से ब्रह्म को विमुख ना मान …

ब्रह्म में जो सरसता है ॥

उसमे शक्ति ही बरसता है ,,,

शक्ति जग का हार है …

पर क्र्पान की धार है ,,,,

गर हो गया विमुख …

कुछ रहेगा ना समुख ,,,

शक्ति मय बन जा,,,

शक्ति का अवसान क्यों करता है??

कुटिलता क्यों निहरता है ??

निकलती स्वर्ग की राह इससे,,,

निकलती विकाश की बांह इससे,,

स्रस्ति सारी इसपे ही टिकी है ,,,

कब किसी के तूरिन से यह डिगी है?/

व्याल के गरल से तिक्ष्न है /

यूद्ध के द्वंद सी भीषण //है

जंग बिन लड़े ही क्यों बिखरता है???

कुटिलता क्यों निहरता है ????/,,,,,,,,,,


ये बड़ा तिक्ष्न गरल , सुधामय


इतना नहीं सरल ,,,,

ये बड़ा तिक्ष्न गरल ,

सुधामयगर पान करना है ,,,,

सत्य का ज्ञान करना है

द्वैत की छोड़ आद्वेत को बांध ,,

एकीकार होकर,,,,,,,,,,,

अन्यन्यता खोकर ,,,,,

सुधा मय से मुह मोड़ ले ॥

मय स्रस्ति दामन छोड़ ले ,,,

बन जा स्रस्ति का भर्ता,,,,

बन जा जग का कर्ता,,,,,,

मिटेगा क्रंदन ,,,,,,,,

होगा नूतन ,,,,,,

यही है जीवन,,,,,,

गर यह ज्ञान हो गया ,,,

अभिमान खो गया,,,,

मिलेगा सुख,,,,

होगा न दुःख...

मिटेगी अंतस वेदना ,,,

मिलेगी सत्य चेतना ,,,,

जव सत्य का आरम्भ होगा ।

तभी जीवन प्रारम्भ होगा ,,,

सत्य ज्योति जगा दो....

भ्रान्ति सब मिटा दो,,,

पाप धो कर,,,

निज आस्तित्व खोकर/

करो साधना....

जिसे करते है कुछ विरल॥

इतना नहीं सरल,,,

ये बड़ा तिक्ष्न गरल ,,,,,,,,,,,,,