Sunday 26 April 2009

उदिग्न मन ,,,


आज उदिग्न मन ,,,

कम्पित जीवन की रसता भांप रहा है ,,,,

विचार शील हर्दय की अंतरात्मा से ,,,,

कोई झांक रहा है,,,

पूछता है हमारे दीर्घ कालिक उत्तथान का ॥कारण???

वैभवता की चाहत ???

निराशित ,मन का सुकून ....

आलोक के लिए पल पल क्यों दौडा जा रहा हूँ मैं ??

कोमल भावनाओं को क्यों रौंदे जा रहा हूँ मैं ?/

मैं हतास नहीं हूँ इस जीवन की धारा से ,,,,

भीवत्स से इस जीवन के अस्त बल में दौड़ रहा हूँ ,,,

ना खत्म होने बाली दीर्घकालिक दौड़ के लिए ,,,,

पारलौकिक चाहता है ,,,,

मुझे भान हो रहा है,,,

पल पल मेरा मान खो रहा है ,,,

क्यों की जुगुप्त्सा मेरे अंतस से उभर रही है,,,,

आंतरिक उर्जा निखर रही है ,,,

विचलित मानसिक्ताये मुझे घेर रही है ,,,

व्यकुल्ताये मुझे घेर रही है ,,,,

एक आलोक के पास जाने की चाहत॥

मेरे मन में उदभासित हो रही है,,,

बड़ी विचारशीलता से मैं अपने को देख रहा हूँ ,,,

शक्ति से शाक्त की पूजा के लिए,,,,

आज मैंने अपने आप को संभाल लिया है ,,,

कम्पित राहों पे बढ़ने के लिए,,,

मैं शांत हूँ ,मौन हूँ , व्याकुल हूँ ,,

और मेरा जीवन हांफ रहा है ,,,

आज उदिग्न मन ,,,

कम्पित जीवन की रसता भांप रहा है ,,,,

1 comment:

समयचक्र said...

बढ़िया रचना बधाई.