Thursday 25 June 2009

इश्क की आंधी में हम तो इश्को इश्क हो गए है ,, (कविता)


ये कविता मैंने कई दिन पहले लिखी थी पर बड़े संकोच बस इसे मैं अपने ब्लॉग पर नहीं डाल रहा था पर मित्रो की राय और उनकी अनुसंसा से मैं इस कविता को आप के सन्मुख रख रहा हूँ और इस कविता को मैं अपनी माँ निर्मला कपिला जी के चरणों में समर्पित कर रहा हूँ आप की राय और सुझाव का बड़ी बेसब्री से इन्तजार है

किस्मतो से जब इश्क गुलजार होता है सीने में,,
मुकद्दर से जब उनका दीदार होता है नगीने में ,,
धड़कने रुक जाती है निगाहे लगती है निगाहों का अश्क पीने में,
फिर जमी पे है जन्नत कहाँ , क्या रक्खा इस नाचीज जीने में ,,

ये नवी तूने किया क्या हम तो पागल हो गए है ,,
इश्क की नजरो से तेरी हम तो घायल हो गए है,,
इश्क की आंधी में हम तो इश्को इश्क हो गए है ,,
तेरी इश्क जन्नत की ख़ुशी है ,इश्क है नजरो का पर्दा ,,
इश्क खुसबू की नमी है ,, इश्क है सांसो का सरदा ,,
इश्क है सावन की बहारे, इश्क घटती घटाए है ,,
इश्क महबूब की महफ़िल ,,इश्क गम की सदाए है ,,
इश्क है राग दिल का , इश्क चलती हवाए है ,,
इश्क बर्षो से जोड़ी इस जवानी की कीमत है ,,
इश्क दिल की जरुरत है ,, इश्क उसकी मोहब्बत है ,,
इश्क का खाशो खाश अमला , इश्क दुनिया से बगावत है ,,,
इश्क चाँदी ,इश्क सोना ,इश्क सबकी जरुरत है,,
इश्क में डूब लो यारो, इश्क ही खुबसूरत है ,,,
इश्क सरगम ,इश्क ताने ,इश्क की धुन निराली है ,,,
इश्क जलता हुआ शोला , इश्क ही तो दिवाली है ,,
इश्क है साँस दुनिया की ,इश्क जन्नत का ठिकाना है ,,
इश्क है हुस्न उसका , इश्क मिलने का बहाना है ,,
इश्क अल्लाह का सजदा है , इश्क ख्वाजा को पाना है ,,
महफिले इश्क में हमको तो, इश्क इश्क गाना है ,,
इश्क बारूद की ढेरी, इश्क खंजर का मुहाना है ,,
इन जलती फिजाओ में इश्क सबसे पुराना है ,,
इश्क सजदा , इश्क जन्नत ,इश्क दरिया ,,
इश्क का रूप न्यारा है,,
इश्क अल्लाह की रहमत है ,इश्क ख्वाजा को प्यारा है ,,
इश्क को ढूडती दुनिया,इश्क ने हम को मारा है ,,,
इश्क को बांध बाँहों में , हम तो जाहिल हो गए है ,,
ये नवी तूने किया क्या हम तो पागल हो गए है,,
इश्क की आंधी में हम तो इश्को इश्क हो गए है ,,

Monday 22 June 2009

माटी के गद्दारों को,,(कविता)


कल रात स्वपन में मैंने देखा,,
भारत के सरदारों को .
माटी के गद्दारों को ,,
चूहों के परिवारों को ,,
इस धरती माँ के भारो को ,,
इन संसद के बेकारो को ,,
भारत की खूब गरीबी देखी ,,
फिर देखा इन के श्रंगारो को ,,
नंगे पद चलते भारत देखा ,,,
फिर देखा इनकी महंगी कारो को..
हाथ फैलाये बच्चे देखे ,,,
फिर देखा इनके नारों को ,,
कमर तोड़ती महगाई में ,,
घुट घुट जीते परिवारों को ,,
धू धू कर जलती बस्ती देखी,,
फिर भासड करते मक्कारों को ,,
कल रत स्वपन में मैं ने देखा ,,
माटी के गद्दारों को ,,
भारत के सरदारों को ,,
इस धरती के भारो को ,,
क्या क्या देखा मैंने ,,
सत्ता लोलुप सियारों को ,,
खुद का सौदा करते इन बेचारो को ,,
रास्त्र प्रेम में मरते सैनिक देखे ..
फिर कफ़न बेचते इन मारो को ,,
वोटो की खातिर , नोटों से खातिर ,,
करते वीभत्स नजारों को,,,
अब और नहीं कुछ रहा देखना,,
जब देखा भीषण नर संहारों को ,,
कल रात स्वपन में मैंने देखा,,
माटी के गद्दारों को,,
भारत के सरदारों को ,,इन धरती माँ. के भारो को,,

Thursday 18 June 2009

क्यों सत्य को पखार दूँ ?/(कविता)


महज मान के लिए ,,,,
क्षणिक मान के लिए ,,,
क्यों सत्य को पखार दूँ ?/
प्रेम वासना के लिए,,
चालित रसना के लिए ,,
दिव्य क्यों निकार दूँ ?/
जन्म जन्मान्त से दवी,,
सुप्त इच्छाओ को ,,
जाग्रत कर क्यों पाप लूँ?/
सत्य को क्यों पखार दूँ ? /
इस भंगुर जिस्म की चाहता ,,,
इस सुख तिलिस्म की चाहता ,,
यह स्वर्ण लेपित लहू पर्त है,,
पाताल व्यापी गहन गर्त है ,,
क्यूँ जान कर मैं विहार करूँ ??
सत्य को क्यों पखार दूँ ??
दुखितो का लहू पान कर ,,
धनिकों को धन दान कर ,,
अपूज्य को पूज्य मान कर ,,
सुधा वाट में विष पान कर ..
क्यूँ अखाद आहार करू ??
क्यों सत्य को पखार दूँ ?/
क्यों अनित्य को नित्य मान लूँ ?
क्यों भेद को अभेद मान लूँ ?
क्यूँ सुख में दुःख उर डाल लूँ ?
क्यों सुक्ष्म को गहन मान लूँ ?
क्यों अब आत्म तत्व का संघार करूँ ?
क्यों सत्य को पखार दूँ ?
क्यों दिव्य को निकार दूँ ?

Monday 15 June 2009

आखिर क्यों चाहते हो समाज में बराबरी,,


क्यों विकल हो तुम ,,
आखिर क्यों चाहते हो समाज में बराबरी,,
क्यों नहीं आती है तुम्हे संतुष्टि ,,
मिल तो रही ही है ओला वर्षटि,,,
और क्या चाहिए तुम्हें ,,,
आखिर किसान ही तो हो ,,
तुम्हें साक्षरता और शिक्षासे क्या लेना .....
लोग चाँद पर जाये या मंगल पर ,,
तुम अपना हल चलाओ ,,,
और पैदा करो अन्न ,,,
हमारा पेट भरने के लिए ,,,
साथ में लगा लो ,,
अपने नादान बच्चो को हसिया और कुदाल दे कर ,,
और प्रसवा पत्नी को भी दुदमुहे बच्चे के साथ ,,
क्या फर्क पड़ता है ,,,
तुम भूखे सो ओ ,,
या तुम्हारे बच्चे दवा के आभाव में,,
विलख कर मरे ,,
और तुम्हारे पास पैसे न हो ,,,
आखिर देश तो प्रगति कर रहा है ,,
अब कर्ज में जान दे दो,,,
या रेलवे ट्रेक पर लेटो ,,,
या फिर गिरवी रख दो ..
अपनी बेटियों की अस्मिता ,,,
और बेटो की स्वतंत्रता ,,,
साहूकारों के घर में,,,
आखिर कर्म ही तो धर्म है तुमारा ,,,
ये क्यों कहते हो तुम्हें कुछ नहीं मिला ,,
मिला तो है ,,,
जय जवान जय किसान का नारा ,,,
रास्ट्र आय में भरी योगदान का सम्मान ..
और गरीबी भी तो मिली है ,,
अशिक्षा, बीमारी,भुखमरी ..
ये सब काफी कुछ तो मिला है ,,,
ये क्यूँ कहते हो शहर में मेट्रो है,,
गाँव में सडके नहीं है ,,अस्पताल नहीं है
स्कूल नहीं है ,,
आखिर उनके बिना रहने की तुम्हारी आदत तो है,,
क्यों कहते हो सरकार ने तुम्हें कुछ नहीं दिया ,,,
आखिर दिया तो है ,,,
अन्नदाता का सम्मान ,,
अन्नदाता कहलाने का अधिकार ,,,
भले ही तुम्हारी मौत भूख से हो ,,,
पर हो तो अन्नदाता
क्यों नहीं आती तुम्हें संतुष्टि

मार्गदर्शक बनो ,,


मार्गदर्शक बनो ,,
कर्तव्य का बोध करा दो,,
सुपथ में मुझे लगा दो ,,,
लक्ष्य च्युत हूँ मैं ,,
पथ विमुख हूँ मैं ,,,
अज्ञान के भवर से ,,
ज्ञान के थल तक ,,
नैया पार लगा दो ,,,
कर्तव्य का बोध करा दो ,,
सुपथ में मुझे लगा दो ,,
क्या सत क्या असत ,,
सोच दिग्भ्र्मीत होता हूँ ,,
इस सत असत के क्षोभ से ,,
इस जग द्वंद के लोभ से ...
छोड़ सारी रीतिया ,,
अपना अनेक कुरीतिया ..
प्रकश नित ढूडता हूँ ,,
गर्त में नित बूड़ता हूँ ,,
और तमिष और तमिष,,
मैं खुद बढा रहा हूँ ,,
सत्य सत्य छोड़ के ,,
असत्य पथ पढ़ा रहा हूँ
छोड़ना चाहता इस कलुष द्रश्य को ,,
चाहता जगनी ब्रह्म स्र्द्श्य हो ,,,
पर बधा हूँ विकल हूँ ,,
छूटता दामन नहीं,,,
टूटता बंधन नहीं ,,
बन्धनों को काट मुक्ति दिला दो ,,,
निज साक्षात्कार करा दो ,,
सुपथ में मुझे लगा दो ,,,
कर्तव्य का बोध करा दो ,,,
मार्ग दर्शक बनो ,,,,

Sunday 7 June 2009

बोझिल नैनों से नीद उडी है ,,कविता )


बोझिल नैनों से नीद उडी है ,,

आँखों की चौखट पर महबूब कड़ी है ,,

अपलक अपलक ठगी लखे,,,

झर झर झर झर नीर वहे,,,

यादो के आगोसो की बर्षा,,,

करना प्रिये अभी रात पड़ी है ,,,

बोझिल नैनों से नीद उडी है ,,

आओ प्रिये मैं अमृत घोलूं ,,,

अकटक अविचल तेरा होलूं ,,

निजता की इस मधुमय वेला में,,,

क्यों रूठी रूठी दूर कड़ी है ,,,

बोझिल नैनों से नीद उडी है ,,

आगोसो में आ एक लाक हो जा ,,,

मैं तुझमे तू मुझमे खो जा ,,,

मैं तेरा तू मेरी हो जा,,,,

आओ अब प्यास बढ़ी है ,,,,

बोझिल नैनों से नीद उडी है ,,

संगीतो की साँझ सजा दो....

मुखरित कर दो गालो की लाली ,,

लव से लव तुम टकरा दो ,,,

मिलने की अब चाह बढ़ी है ,,,

बोझिल नैनों से नीद उडी है ,,

अपना ये कौमार्य मिटा दो ,,,

निज को तुम अब सुरभित कर लो ,,,

मुझको तुम बाँहों में भर लो ,,

मिटने की अब तड़प बढ़ी है ,,,

बोझिल नैनों से नीद उडी है ,,

प्रवीण पथिक

9971969084

Saturday 6 June 2009

सत्य कुछ और है ,,,,,,, (कविता )


इस हरियाली के,,

पीछे का सत्य,,,

कुछ और है ,,,

जीवन के वहाव के विपरीत ,,

जो मद्धिम सा है संगीत ,,

उसका तथ्य ,,

कुछ और है ,,,

निश्चल बादल के नीचे,,,

जो बिजली की कड़क है ,,,

उसका कथ्य,,

कुछ और है,,

पर्वत की चोटी से गिरता झरना,,

झरने के अंतस की धरना ,,

उसका सत्य ,,

कुछ और है,,

इस पवनी का शीतल वहना,,

कानो में धीमा सर सर करना ,,

जीवन के सत से अबगत कराती ,,

उसके कहने का कथ्य ,,

कुछ और है ,,,

जब व्याकुल मन की उठती तरंग ,,

छाता मन में सत का रंग,,,

छिड़ती अंतस में धीमी जंग ,,,

होती मन की हार जीत ,,,

इस अंतर ध्वनि का सत्य ,,

कुछ और है ,,,

जब खिलता मन देख सुख ,,,

इस सुख के पीछे का क्रंदन ,,

जिसमे डूबा है कोई मन ,,

उस दुखिता मन का सत्य ,,

कुछ और है ,,,,,,,

Friday 5 June 2009

बेहोशी के मीठे पल में,, ( कविता )


बेहोशी के मीठे पल में,,

मैं शून्य क्षितिज में फिरता था ,,,

हिम गिरी की उचाई चढ़ता था,,

फिर सागर में गिरता था ,,

कौतुक विस्मय हो लोगो को ,,

अपलक निश्चल देखे जाता था ,,

कर्तव्य विमूढ़ हो उनकी इस ,,

चंचलता को लिया करता था ,,

फिर हो सकेंद्रित निज की ,,

मस्ती में ही तो जिया करता था ,,

प्रीत और प्रेम को अनायश ही,,

खेता था,,

नीरश इन रागों में रस्वादन लेता था ,,

माधुर्य और माधुरी की ,,,

एक प्रथक कल्पना थी मेरे मन में ,,

इन वेढ़न्गों से अलग,,

वाशना थी मेरे मन में ,,

कभी प्रेम की व्याकुलता को ,,

मैंने महसूश नहीं क्या था,,

कभी ह्रदय की दुर्वलता को ,,

मैंने महसूश नहीं क्या था ,,

सौन्दर्य वशन इस धरती का ,,

मेरा प्रेमांगन था ,,

ऋतुओ का परिवर्तन ही ,,

मेरा प्रेमालिंगन था ,,

हर शर्द किन्तु चौमुखी हवा,,

मुझको हर्षित करती थी ,,,

सूरज की एक एक किरणे ,,

उल्लासो से भरती थी ,,,

बस नया प्रेम अब खोज रहा हूँ ,,

वो सब भूल भूला के ,,,

छेड़ रहा हूँ नयी तान ,,

रागों में खुद को मिला के ,,,

Thursday 4 June 2009

सानिध्य के लिए क्यों ,,


ओ सत्य के प्रकाशक,,
ये जगत के शासक ,,
सानिध्य के लिए क्यों ,,
तड़पा रहे हो ,,
विकल हूँ इस तमिष ..
भरे जीवन से ,,
दुखिता के इस क्रंदन से ,,,
सामीप्य के लिए तड़प रहा हूँ ,,
अकिंचन उत्कंठा लिए ,,,
अनमिलन की कुंठा लिए,,
हिलोरे मारते सागरों की,,
छातियों पर,,
आत्म मंथन का द्वार,,
खोलता हूँ,,
वैराग का द्वार ,,
खोलता हूँ ,,
फिशलती है ,,
समीप की सीडिया ,,,
डूब जाती है कई ,,
पीडिया ,,
अगम्य अथाह गर्त की ,,
कोख में ,,
पर तेरी चाहता उतर ..
देती है सारे बन्धनों को,,
मिटा देती है,,
सारे क्र्न्दनो को,,
जड़ कर देती है उनके हौसलों को ,,
जो है आत्म ज्ञान के हासक,,,
ओ सत्य के प्रकाशक ,,
ये जगत के शासक ,,
सानिध्य के लिए क्यों ,,
तड़पा रहे हो ?
ant

Tuesday 2 June 2009

म्रत्यु का आवाहन कर रहा हूँ ,,


म्रत्यु का आवाहन कर रहा हूँ ,,

निज से निज में उतर रहा हूँ ,,,

मौन है उद्देव्ग सारेहै दिशाए शून्य सी ,,

अस्पस्ट है कुछ धुंधली सी तस्वीर मेरे मन की ,,

शून्य से शून्य में चाहता विलुप्त होना ,,,

अंतरिक्ष के कोने में चाहता खोना ,,

चाहता हूँ इन तनो सर्व कालिक मुक्ति ,,

बनना चाहता हूँ मैं सर्जन की शक्ति ,,

अविरल अविराम मैं सर्जन चाहता हूँ ,,

पल पल नया नवीन संगीत चाहता हूँ ,,

कुछ दुदुम्भी बज रही है मेरे ह्रदय में ,,

मानो रण की रण भेरिया हो ,,,

होश और जोश से पल पल भर रहा हूँ ,,

आज अब शोक गीत का गान कर रहा हूँ ,,

म्रत्यु का आवाहन कर रहा हूँ ,,

उदिग्न सारे मिट रहे है तेज के ताप से ,,

मिट रही है दूरिया तेज के प्रताप से ,,,

रौशनी कही से कुछ कुछ दबी आ रही है ,,,

जिन्दगी पल पल सिमटती जा रही है ,,,

कही अजात से कोई मुझे बुला रहा है ,,,

कानो में कोई पल पल म्रत्यु गीत गा रहा है ,,

रौनके धुली धुली , खुला आशमा है ,,

जल के क्यों बुझ रही ये समां है ,,

सब सफ़ेद हो रहा है रंग छोड़ के ,,,

साथ था जो कभी, जा रहा है जीवन भी मुह मोड़ के ,,

हाथ मलता रहा पल पल विकल रहा ,,

अब तक संग जिन्दगी के मैं चलता रहा,,

अब ये तन तेरी शरण कर रहा है,,

अब मैं म्रत्यु का बरण कर रहा हूँ ,,,

म्रत्यु का आवाहन कर रहा हूँ ,,

Monday 1 June 2009

कन्या की आज परिक्षा है ,,,


जब तीव्र विकल मन रोता है ,,,

तीखी पलकों की नोकों से ,,

मानो धरणी का अंतस ,,

विखर रहा हो ॥

तेज हवा के झोको से ,,

सब द्रग अपलक देख रहे है ,,

सांसो की तेज वहारो को ,,

संग्राम विजित सी गंगा हो ,,

उसकी चंचल धारो को ,,,

कौमार्य साधने को ,,

कन्या की आज परिक्षा है ,।

या धैर्यशील वीरो की ,,,

व्यभिचारी इच्छा है ,,,

ज्ञान सुप्त कुमुदनी सा ,,

कुंठित होता जाता है ,

जो सागर तन में क्रीडा करता ,,

उसमे डूबा जाता है ,

क्यों मौन शब्द क्ष्र्न्ख्लाओ के ,

अनवरत मैं भाल सहूँ ,

क्यों कर्तव्य विमुख हो ,

मन की टेडी चाल सहूँ ,,

सब लोल विलोल हिलोल हुए ,

सब जीर्ण हुए सब गोल हुए ,

सब फिसल रहे ,

सब डाबा डोल हुए,

कभी वेदना के सागर में ,,

उसके तीव्र हिलोरो से ,,

कहकहे सुनाई देते है ,,

हर चपला सी चपल हँसी,

कानो में शीशा भरती है ,,

मानो बेढंगे की हर ऊँगली ॥

तबले पर चोटे धरती है ,,

मैं समुद्र शांत सा स्थर मन ,,

करके बढ़ता जाता हूँ ॥

हर कठिनाई से कठिनाई का

रास्ता पढता जाता हूँ ,

हर विष कलश डालता हूँ ,,

कंठो में गंगा के सुभषित जल सा ,

हर बार झेलता हूँ ,,

स्म्रतियों के पल सा ,,,