अतृप्त इच्छाओ की ,,,
अधबनी नौका लेकर ,,,
हुआ हूँ फिर उपस्थित तेरे सम्मुख ,,,,
ओ दयानिधे ,,,,
टकटकी लगा रखी है ,,,,
तेरी हर अनुग्रही क्रिया पर ,,,,
की काश कोई द्रष्टि इधर भी हो ,,,,
ओ समग्र नियन्ता ,,,,
मेरी इस मौनाकुल पीड़ा को ,,
तुम समझ सकते हो ,,,,
क्यों की तुम हो दिव्य द्रष्टा ,,,
हर्दय के मंथन से निकली हुई ,,,
अतृप्त इच्छाओ की तीव्र वेदनाये ,,,
बुलबुले सा एकत्र हो कर,,,
बना रही है एक अभेद पर्त,,,
अज्ञान और अनिच्छा की ,,,
सम्मिलन दूर दिख रहा है ,,,,
ज्ञान कुंद और सुप्त सा है ,,,,
फिर भी मै आशान्वित हूँ ,,,
तेरी आभाषी प्रवर्ती को लेकर,,,
तेरे साथ काल्पनिक सम्मिलन को लेकर ,,,
आनंददायक मिलन को लेकर ,,,
आत्मा की अत्रप्त्ता बढती ही जा रही है ,,,,
सजगता और स्वीकार्यता के छल ,,,
अब नहीं सहन होते ,,,
समग्र बंधन अब सिथिल है ,,,
नहीं झेल पाते मिलन की उत्कंठा के उफान को ,,,
बस अब और नहीं हे प्रिये बंधन खोल ,,,
आलिंगन में ले लो
अधबनी नौका लेकर ,,,
हुआ हूँ फिर उपस्थित तेरे सम्मुख ,,,,
ओ दयानिधे ,,,,
टकटकी लगा रखी है ,,,,
तेरी हर अनुग्रही क्रिया पर ,,,,
की काश कोई द्रष्टि इधर भी हो ,,,,
ओ समग्र नियन्ता ,,,,
मेरी इस मौनाकुल पीड़ा को ,,
तुम समझ सकते हो ,,,,
क्यों की तुम हो दिव्य द्रष्टा ,,,
हर्दय के मंथन से निकली हुई ,,,
अतृप्त इच्छाओ की तीव्र वेदनाये ,,,
बुलबुले सा एकत्र हो कर,,,
बना रही है एक अभेद पर्त,,,
अज्ञान और अनिच्छा की ,,,
सम्मिलन दूर दिख रहा है ,,,,
ज्ञान कुंद और सुप्त सा है ,,,,
फिर भी मै आशान्वित हूँ ,,,
तेरी आभाषी प्रवर्ती को लेकर,,,
तेरे साथ काल्पनिक सम्मिलन को लेकर ,,,
आनंददायक मिलन को लेकर ,,,
आत्मा की अत्रप्त्ता बढती ही जा रही है ,,,,
सजगता और स्वीकार्यता के छल ,,,
अब नहीं सहन होते ,,,
समग्र बंधन अब सिथिल है ,,,
नहीं झेल पाते मिलन की उत्कंठा के उफान को ,,,
बस अब और नहीं हे प्रिये बंधन खोल ,,,
आलिंगन में ले लो