Saturday 30 May 2009

अब स्याह धुआ सा उठता है ,


अब स्याह धुआ सा उठता है ,

वेदी की पावन आगो से,,,

अब रुदन सुनाई देता है ,,

फागुन के मीठे फागो से,,

अब गीता की अद्भुत वाणी ,,

जीवन में उल्लाश नहीं भरती,,

अब मंदिर की टन टन घंटी ,,

जीवन में आश नहीं भरती ,,

हर ओर कीट पतंगों का ,,

अब शोर सुनाई देता है ,,,,

हर गली मोड़ पर भिखमंगो का ,,

अब जोर दिखाई देता है ,,

आमो के सुन्दर पेडो पर ,,,

अब कोयल गान नहीं करती,,

गंगा के पावन घाटो पर॥

अब कोई माँ दान नहीं करती ,,

लहू पुता सा क्षितिज और ,,

,अब भीवत्स धरा दिखती है ,,

मानो अंगारों की वर्षा हो ,,,

अब यैसी सावन की बूंद वर्षती है ,,

अब धरती की सुन्दरता ,,

मन में संज्ञान नहीं धरती,,,

बूंदों की लय के ऊपर ,,,

अब कोई गोरी गान नहीं करती ,,

अब तीव्र रोष सा उठता है ,,

जन जन की हुंकारों में ,,,

प्रतिशोध दिखाई देता है ,,,

अब बहती नदियों की धारो में,,

अब चीत्कार सुनाई देता है ,,,

भारत के अन्तरंग भागो से ,,,

अब स्याह धुआ सा उठता है ,

वेदी की पावन आगो से,,,

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