Wednesday 27 January 2010

अनुभूति


जब मन अनुभूत करता है ,,,
अनावश्यक की जिज्ञासा ,,,
और प्रयाश करता है ढूडने का,,,
अनुत्तरित से कुछ प्रश्नों का उत्तर ,,,
तब संवेदनाये जैसे मर सी जाती है,,
तब रह जाती है केवल और केवल,,,
पिपाशा
अनुपलब्धता को उपलब्ध करने की ,,
अनुपस्थित को उपस्थित करने की ,,,
अप्राप्त को प्राप्त करने की ,,,,
सुप्त इच्छाये भी तब होने लगती है ,,,
जाग्रत ,,,
या यूँ कहे इच्छाओं का साम्राज्य ,,,
एक और उपलब्धि की चाहत ,,,
बढा देती है और उत्कंठा ,,,
बढा देती है और कुंठा ,,,
तब एक छत्र राज्य होता है ,,,
निष्क्रियता का ,,,
बढती जाती है तुझसे दूरी ,,,
कदम दर कदम ,,,,,
हर कदम अन्मिलन की ओर बढ़ता जाता हूँ
क्यों की वही तो है इच्छाओं की इति ,,,
और पतन की इति भी ,,,,

4 comments:

rashmi ravija said...

ओह्ह... बड़ी गंभीर सी कविता है ये तो अपने अन्दर झाँकने को मजबूर करती हुई.....बढ़िया अभिव्यक्ति

दिगम्बर नासवा said...

इच्छाओं की इति पतन की इति हो ये ज़रूरी नही ........ कभी कभी निर्वाण की स्थिति में भी ऐसा ही कुछ होता है .... गहरी रचना है ...........

अमिताभ श्रीवास्तव said...

kuchh shbdo ki khatak he, vese ho sakta he print ki galti ho, rachna utkrasht he.

श्रद्धा जैन said...

गहरी कविता है
बढ़िया अभिव्यक्ति