Friday 7 May 2010

आखिर क्यों मरती है केवल माएँ,,,(प्रवीण पथिक)

पिछले दिनों एक ऐसी घटना हुई जिसने हर व्यक्ति को छुआ ,, और समाज के बारे में सोचने वाले हर व्यक्ति ने अपनी अपनी तरह से अपने अपने विचार व्यक्त किये ,,,,अब क्या गलत है और क्या सही मै इस पचड़े में नहीं पडूंगा ,, लेकिन ये चीज सोचने को मजबूर जरूर करती है की येसी घटनाये इस कथित प्रगतिवादी समाज में होती क्यों ,, और जब होती है तो हमारा नजरिया एक पहलू क्यूँ होता है ,,,,आखिर क्यों नहीं उस दूसरे पक्ष का दर्द हम महसूश करते है क्या केवल इस लिए की वो पक्ष अपने आप को संस्कारों की जड़ो में बांधे रखने का दंभ भरता है ,,,, या फिर हम अपने संस्कारों और सभ्यता को तोड़ने के लिए इतने व्यघ्र है,,,,, इस घटना के बात उस माँ की अंतरात्मा क्या कहती होगी जिसने अपने कलेजे के टुकड़े को सहेज कर पाला ,,,,,,,

आखिर क्यों लांघी तुमने वो सीमाए ,,,
जो तय की थी समाज ने ........
आखिर क्यों भरा झूठा दंभ ,,,,,
प्रगतिवादिता का ,,,,,,
क्या मेरी करुणा इतनी सस्ती थी ,,,,
या संस्कारों की जड़े पोपली थी ,,,,
जो तुमने एक झटके में डहां दिया ,,,
कर्तव्यों से सींचा विश्वाश का विराट व्रक्ष ,,,
परिवर्तन स्रष्टि है , परिवर्तन विकाश है ,,,
पर कर्तव्यों को इति नहीं है ,,,संस्कारों की अवनति नहीं है ,,,
स्वच्छन्दता नहीं है ,,,निर्भयता है निर्दयता नहीं है ,,,,
फिर क्यूँ बनी इतनी निर्दयी ,,,,
आखिर क्यों नहीं दिया कोई मोल ,,,
तुमने मेरे वात्सल्य की प्रगाढ़ता को ,,,
क्षणिक वासनात्मकता के आगे ,,,,
आखिर क्यूँ लिया इतना अनापेक्षित निर्णय ,,,,
केवल क्षणिक भावुकता के लिए ,,,,,
क्यों नहीं विकशित हो सकी तुममे ,,,,,,
सामाजिक दायित्वों की समझ ,,,,,
आज माँ की विदीर्ण आत्मा कराह रही है ,,,,
कुछ प्रश्नों के साथ,,,,
तुमने आस्तित्व खोया ..और मै आस्तित्व हीन हो गयी ,,,,
तुम चिर निंद्रा और मै निर्जीवता में खो गयी ,,,,
एक प्रश्न के साथ ,,,
आखिर क्यों मरती है केवल मांये,,,,,
आखिर क्यों लांघी तुमने वो सीमाए

6 comments:

M VERMA said...

प्रवीण जी
यह क्यूँ तो शाश्वत सा नज़र आता है
पर न जाने हर कोई उत्तर देने से कतराता है
सुन्दर रचना, उद्वेलित करती सी

vandana gupta said...

एक ह्रदय को आन्दोलित करती रचना……………………माँ के दिल को , उसकी वेदना को समझने के लिये माँ बनना जरूरी है।

विनोद कुमार पांडेय said...

प्रवीण जी..कविता के बारे में तो मैं आपसे पहले ही कह चुका हूँ यहाँ मैं एक बात आपके बारे में कहना चाह रहा हूँ भावनाओं में जितना डूब कर आप लिखते है उतना मैने शायद ही किसी को देखा.. हर एक पंक्ति आपके मन में उठे भावनाओं और सामाजिक समस्याओं की ओर इंगित करता है..प्रेम की अनुभूति भी बेहतरीन...मातृ दिवस पर इस कविता को पढ़ना मेरे लिए और भी सुखद रहा..बस ऐसे ही लिखते रहिए...दिल से आपको ढेर सारी..शुभकामनाएँ

अरुणेश मिश्र said...

प्रशंसनीय ।

अरुण चन्द्र रॉय said...

सुंदर रचना. सोचने को प्रेरित करती है. इक प्रश्न छोड़ जाती है चिंतन के लिए. सार्थक कविता

रचना दीक्षित said...

एक विचारनीय पोस्ट.क्या कहूँ बस मौन रह कर उस दर्द को महसूस करने की कोशिश करना चाहती हूँ
अपनी एक कविता संलग्न कर रही हूँ जो इसी विषय पर है

"प्रपंच"

दर्द की दीवार हैं,
सुधियों के रौशनदान.
वेदना के द्वार पर,
सिसकी के बंदनवार.
स्मृतियों के स्वस्तिक रचे हैं.
अश्रु के गणेश.
आज मेरे गेह आना
इक प्रसंग है विशेष.
द्वेष के मलिन टाट पर,
दंभ की पंगत सजेगी.
अहम् के हवन कुन्ड में,
आशा की आहुति जलेगी.
दूर बैठ तुम सब यहाँ
गाना अमंगल गीत,
यातना और टीस की,
जब होगी यहाँ पर प्रीत.
पोर पोर पुरवाई पहुंचाएगी पीर.
होंगे बलिदान यहाँ इक राँझा औ हीर.
खाप पंचायत बदलेगी,
आज दो माँओं की तकदीर.