Sunday 19 July 2009

वो नुक्कड़ पर बैठी अबला (कविता)


हमारे समाज में कितनी विसंगतिया है---- कही पर कुछ है और कही पर कुछ ---हमारे समाज में भी यैसे लोग है यह देख कर हर्दय घर्णा से भर जाता है ---माँ वो शब्द है पदवी है निधि है जिसका इस दुनिया में कोई मूल्य नहीं अमूल्य है -----पर उसके साथ भी ऐसा सलूक करते है लोग ----, ये कविता मैंने एक ऐसी ब्र्द्धा स्त्री पर लिखी है------ जिसके चार चार लड़के होते हए भी वो बेघर और बेसहारा है---- कोई भी लड़का उसे घर में रखने को तैयार नहीं,, वो चांदनी चौक के शानिमंदिर वाली गली के बाहर नुक्कड़ पर पटिया पर बैठी रहती है ----वही उसका घर है और जो लोग उसे दया करके खाने को दे देते है उसी से अपना पेट भरती है--- अर्ध विक्षिप्ता सी हो गयी है -----आँखे भर जाती है और आँशू अपने आप बहने लगते है ----फिर चाहें कविता के रूप में ही क्यूँ न हो ,,
वो नुक्कड़ पर बैठी अबला ,,
आभारो की भाषा कहती है ,,,
हर आने जाने वालो को ,,..
उत्सुक ताकती रहती है ,,,
कर्मो की परिभाषा का ,,,
शायद उसको ज्ञान नहीं ,,,
स्रष्टि की अभिलाषा का ,,,
शायद उसको संज्ञान नहीं ,,,
हुयी बुजुर्गा तो बैठा दी ,,,
लाकर इस नुक्कड़ पर,,,
रही स्वामिनी जिस घर की ,,
एक पल में छूटा वो घर ,,,
चेहरे की झुर्री दर्दो की ,,,
बोली बोल रही है ,,,,,
उसकी ये दयनीय दशा ,,,,
जीवन की सच्चाई खोल रही है ,,,,
टुकड़े खा ,टुकडो को पाला,,,,
अब टुकडो पर जीती है ,,,,
देना देना और बस देना ...
क्या माँ की ये ही रीती है ,,,,
मरणासन्न पड़ी है , मरने को है ,,
पर जाने क्यूँ सांसो को अबरोध दिए ,,
रोज ताकती है पथ को ,,,,
आशा की एक किरण लिए,,,,
शायद मिल जाये वो टुकड़े ,,,
जो टुकड़े थे खुद के किये ,,,
क्या उसकी ममता का ,,,
परिणाम यही होगा ,,,,
लहू से पाला पोषा जिनको ,,,,
क्या उनको ध्यान नहीं होगा ,,,
प्रश्न पूछती आँखे उसकी ,,,
पर आशा रहती है,,,,
वो नुक्कड़ पर बैठी अबला ,,
आभारो की भाषा कहती है

8 comments:

राजीव तनेजा said...

टुकड़े खा...टुकडो को पाला...
अब टुकडो पर जीती है

मार्मिक कविता

vijay kumar sappatti said...

praveen bhai ..

kya kahun padhkar aankhe nam ho gayi hai ...jeevan ko hum insaano ne kya se kya bana diya hai ...

main aur kuch kahne ki stithi me nahi hoon..

vijay

आशेन्द्र सिंह said...

प्रवीण भाई, आपकी कविता के भावः मर्मस्पर्शी हैं. चूँकि मैं हिंदी का विद्यार्थी (रहा) हूँ अतः कह रहा हूँ अगर भावों की सुन्दरता में से भाषा की त्रुटियां ख़त्म करदीं जाएं तो आपकी कविताओं में और निखार आजायेगा. अभी ग्राम्य दोष बहुत हैं. टिप्पणी को अन्यथा न लें...

उम्मीद said...

ठीक कहा पाने आज के युग मैं बस जब तक देते रहो तब तक सब ठीक रहता है पर जब कुछ मांगो तो मंदिर की पाटिया ही मिलती है .........शायद यही जिंदगी है कि जो सबसे ज्यादा देता है उसे सब से जयादा मिलता है पर वो न अपनापन होता है और न प्यार ...बस मिलता है तो तिरस्कार और आंसू का समंदर ....उसके कालेज के टुकडो ने उसे आज लोगो की दया के टुकडो पर छोड़ दिया है ....हो सकता है उन कालेज के टुकडो को कल दया के टुकड़े भी नह मिले ......अपना किया सब इसी लोक में निपटा कर जाते है ......उसकी लाठी में देर है पर अंधेर नहीं .......वो सब के साथ इन्द्सफ़ करता है ........उसके साथ भी करेगा

श्यामल सुमन said...

ऐसे ही हालात पर मुनव्वर राणा साहब कहते हैं कि-

रिस्ते हुए जख्मों को दव भी नहीं मिलती।
अब हमको बुजुर्गों की दुआ भी नहीं मिलती।।

ऐसे ऐसे बेटे जब संसार में हों तो माँ बेचारी क्या करेगी? मगर वे भूल जाते हैं कि-

माँ के दिल को तोड़कर रहा न कोई शाद।
माँ हो जिसपर मेहरबाँ ऊसका घर आबाद।।

कविता के भाव बहुत मार्मिक हैं लेकिन मैं आशेन्द्र जी की बातों से सहमत हूँ।

सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com

संगीता पुरी said...

सुंदर अभिव्‍यक्ति है .. बहुत मार्मिक कविता है .. आज के सत्‍य को चित्रित करती हुई .. शब्‍द बीच बीच में टूटे हुए नजर आ रहे हैं .. जिससे पढने में दिक्‍कत हो रही है .. एक स्‍पेस की जगह दो स्‍पेस पड जाने से ऐसा होता है .. सुधारकर देखें।

निर्मला कपिला said...

टुकड़े खा...टुकडो को पाला...
अब टुकडो पर जीती है
bahut maarmik abhivyakti hai samaaj ke prati kavi ki samvedanaon ko darshati sundar racanaa bahut achhe jaa rahe ho keep it up aasheervad

निर्मला कपिला said...

टुकड़े खा...टुकडो को पाला...
अब टुकडो पर जीती है
bahut maarmik abhivyakti hai samaaj ke prati kavi ki samvedanaon ko darshati sundar racanaa bahut achhe jaa rahe ho keep it up aasheervad