Monday 27 July 2009

चीत्कार भरी बाणी में धुन कैसे लाऊं ?(कविता)

आखिर ये भी बच्चे है



तुम कहते हो गीतों में,,,
अभिनन्दन दूँ ,,,
बाणी की मृदुल व्यंजना से ,,
वंदन दूँ ,,,,,
क्यों ह्रदय शूलता को,,,
नहीं समझते हो मित्रो ?
क्यों गहन मौनता को ,,
नहीं समझते हो मित्रो ?
जब ह्रदय वेदनाकुल हो ,
फिर गीतों को कैसे गाऊं?
जब चीत्कार भरी हो बाणी में ,,
फिर उसमे धुन कैसे लाऊं ?
जब अंतस में भास्मातुर,,,
ज्वाला हो ,,,,
जब लहू बन चुका क्रोधातुर,,
हाला हो ,,,
जब आँखों से केवल ,,
लपटे निकल रही हो ,,,
जब शब्दों में केवल ,,,
डपटे निकल रही हो ...
ऐसे जंगी मौसम में मैं ,,,
प्रेमातुर गीत नहीं गा सकता ,,,
इन युद्घ गर्जनाओं में मैं ,,,,
संगीत नहीं ला सकता ,,,
जब पीड़ित जन के आंसू ,,
मेरी बाणी का संबाद बने हो ,,
जब मेरे जीवन जीने का ,,
स्तम्भन भी अवसाद बने हो ,,,
जब शब्दों में दुखियारों का,,,
रुदन गूंजता हो ,,,,,
जब आँखों में बेचारों का,,,
सदन घूमता हो ,,,,
तब मैं प्रेमी पथ का ,,,
पथगामी कैसे बन जाऊं ,,,
तब मैं मानो मनुहारों का ,,,,
अनुगामी कैसे बन जाऊं ,,,
मैं कविता नहीं सुनाता ,,,
उनके आंसू रोता हूँ ,,,
वो पीते है जिनको पल पल,,,
मैं वो आंसू खोता हूँ ,,,,
घुट घुट जीते धरती पुत्रो की,,,
मैंने तंगी देखी है,,,
रोटी की गिनती करती ,,
तस्वीरे नंगी देखी है ,,,,
बचपन में बूढे होते बच्चो की ,,,
तकदीरे अधरंगी देखी है ,,,,
अब शब्द शब्द संजालो से ,,,
भर गीत कहाँ से लाऊं ,,,
जब ह्रदय वेदनाकुल है ,,,
फिर गीतों को कैसे गाऊं ,,,
अब तो मन करता है इनके रोने में ,,,
अपना क्रन्दन दूँ ,,,,
तब तुम कहते हो गीतों में,,,
अभिनन्दन दूँ,,,,

11 comments:

Mithilesh dubey said...

बहुत खुब, मार्मिक रचना,।।

संगीता पुरी said...

जब हृदय वेदनाकुल है,
फिर गीतों को कैसे गाउं ।
अब तो मन करता है इनके रोने में ,
अपना क्रंदन दूं।
तब तुम कहते हो गीतों में,
अभिनंदन दूं ।
बहुत मार्मिक रचना है .. समाज की समस्‍याओं पर नजर रहती है आपकी .. निरंतर निखरती जा रही है आपकी लेखनि .. बधाई !!

वाणी गीत said...

बहुत बढ़िया ..!!

अविनाश वाचस्पति said...

असलियत से रूबरू कराती। इस कविता में अनेक नेक रस मौजूद हैं और सच्‍चाई की वीभत्‍सता भी। जिससे आंखें नहीं फेरनी चाहिएं, कवि की यही दृष्टि मोहित करती है।

श्यामल सुमन said...

बहुत खूब प्रवीण जी। किसी ने कहा है कि-

कभी आँसू तो कभी खुशी बेची, हम गरीबों ने बेकसी बेची
चंद सांसे खरीदने के लिए, रोज थोड़ी सी जिन्दगी बेची

सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com

Udan Tashtari said...

बहुत खूब!!! भावपूर्ण!!

निर्मला कपिला said...

जब हृदय वेदनाकुल है,
फिर गीतों को कैसे गाउं ।
अब तो मन करता है इनके रोने में ,
अपना क्रंदन दूं।
तब तुम कहते हो गीतों में,
अभिनंदन दूं ।
प्रवीन आज तो तुम्हारी इस मर्म्स्पर्शी अभिव्यक्ति पर नमन कर्ने को जी चाहता है निशब्द हो जाती हूँ तुम्हारी रचनाओं को पढकर मेरे पास तो तुम्हारे जितने शब्द भी नहीं हैं बस इत्ना ही कहूंम्गी कि समाज की चिड्म्वनाओं के प्रति संवेदना समेते लाजवाब अभिव्यक्ति है बहुत बहुत आशीर्वाद्

अर्चना तिवारी said...

सत्यता से भरी सुंदर अभिव्यक्ति

दिगम्बर नासवा said...

मार्मिक....... सत्य है इस रचना में.......Sundar hai aapka blog

उम्मीद said...

बिलकुल सच कहा आपने आज हमारा बचपन ही बुढा हो गया है और जिस देश का बचपन ही प्रोढ़ हो उस देश का भविष्य निश्चित ही अंधकार में है......हमें इनके बचपन को बचपन बनाने की लिए कदम उठाने ही होंगे

M VERMA said...

जब ह्रदय वेदनाकुल है ,,,
फिर गीतों को कैसे गाऊं ,,,
अत्यंत मार्मिक है आपकी रचना. व्यथित मन की वेदना मुखरित है.
सार्थक प्रश्न